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________________ शुद्धोपयोग अधिकार ईसाभावेण पुणो, केई णिदंति सुन्दरं भग्गं । तेसि वयणं सोच्चाऽर्भात मा कुरणह जिरणमग्गे ॥ १८६॥ ईर्षाभावेन पुनः केचिन्निन्दन्ति सुन्दरं मार्गम् । तेषां वचनं श्रुत्वा अभक्ति मा कुरुध्वं जिनमार्गे ॥ १८६॥ कुछ लोग ईर्ष्या से सुरमार्ग की । निंदा किया करते हैं मिथ्यात्व हो । उनके वचन को सुनकर जिननांग के प्रति । तुम मुक्ति को न छोड़ो हित प्रतिकरो रति ।। १८६ ॥ [ ૪૨૩ इह हि भव्यस्य शिक्षणमुक्तम् । केचन मंदबुद्धयः त्रिकालनिरावरण नित्यानंदेकलक्षणनिचि कल्पकनिजकारण परमात्मतत्त्वसम्यक् श्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानरूप शुद्ध रत्नत्रय प्रतिपक्षमिथ्यात्व कर्मोदयसामर्थ्येन मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रपरायणाः ईर्ष्याभावेन समत्सरपरिणामेन सुन्दरं मार्ग सर्वज्ञवीतरागस्य मार्ग पापक्रियानिवृत्तिलक्षणं भेदोपचाररत्नत्रया - गाथा १८६ अन्वयार्थ – [ पुनः ईर्षाभावेन ] पुनः भाव मे [ केचित् ] कोई लोग [ सुन्दरं मार्गे निंदन्ति ] सुन्दर मार्ग की निंदा करते हैं, [ तेषां वचनं ] उनके वचन [श्रुत्वा ] सुनकर [जिनमार्गे ] जिनंद्र देव के मार्ग में [ अभक्त मा कुरुध्वं ] तुम लोग अभक्ति मन करो । टीका- यहां पर भव्यजीव के लिये शिक्षा दी है । कोई मंद बुद्धि वाले त्रिकाल निवारण नित्यानंदरूप एक लक्षण वाले निविकल्प ऐसे निजकारण परमात्म तत्त्व का सम्यक् श्रद्धान उसीका ज्ञान और उसीमें अनुष्ठान रूप जो शुद्ध रत्नत्रय है उसके प्रतिपक्षी ऐसे मिथ्यात्व कर्म के उदय की सामर्थ्य से मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र में परायण हुये जीव ईर्ष्याभाव से मत्सरसहित परिणाम से सुन्दर मार्ग को जो कि पाप क्रिया से निवृत्ति त्यागरूप है, भेदोपचार रत्नत्रयात्मक है और अभेदोपचार रत्नत्रयात्मक है ऐसे वीतराग सर्वज्ञ देव
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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