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________________ २२२ ] नियामगार --- ( अनुष्टुभ ) शल्यत्रयं परित्यज्य निःशल्ये परमात्मनि । स्थित्वा विद्वान्मदा शुद्धमात्मानं भावयेत्स्फुटम् ।।११६।। --- कषायकलिरंजितं त्यजतु चित्तमुच्चर्भवान् भवभ्रमणकारणं स्मरशराग्निदग्धं मुहः । स्वभावनियतं सुखं विधिवशादनासादितं भजत्वमलिनं यते प्रबलसंमृते तितः ॥११७।। ----------------- - - [अब टीकाकार मुनिराज शल्यहिन शुद्ध आत्मा की भावना से प्रेरित कर । हाए दो श्लोक कहते हैं-] - - - - - - । {११६) श्लोकार्थ-नानी शल्यों का परित्याग करके, शल्य रहित परमा में स्थित होकर विद्वान् साधु सदा रपाटन मे शुद्ध आत्मा की भावना कर । अर्या | शुद्ध निश्चयनय से शल्यादि विकल्पों से रहित जो शुद्ध है उसमें तन्मय होक | अनुभव करे। {११७) श्लोकार्थ-जो भत्र भ्रमण का कारण है, पुनः पुनः कामदेव वाणों की अग्नि से दग्ध है और कषाय की कलि-मल से रंगा हुआ है ऐसे चित्त | आप अत्यन्तरूप से छोड़ो, जो विधि-कर्म के वश से अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है ऐ । स्वभाव से नियत म्वाभाविक मृग्व है, वह अमलिन-निर्मल है। हे यति ! तुम प्रय संसार के भय से उस सुख का आश्रय लेबो । भावार्थ-आचार्य का कहना है कि अशुभ भावों से मलिन हुये चित्त । शुभ भावों से निर्मल करके स्वभाव में निश्चित रहने वाले ऐसे सहज परम सुख अनुभव करो।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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