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मा
परमार्थ प्रतिगण अधिकार
मोत्तूरण सल्लभावं रिएम्सल्ले जो दु साहु परिणमदि । सो पडिकमणं उच्चइ, पडिकमरणमश्र हवे जम्हा ||८७ ||
मुक्त्वा शल्यभावं निःशल्ये यस्तु साधुः परिणमति : प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात् ॥ ८७ ॥ | जो माया मिथ्या औ निदान, रात्र शन्यभाव को तंग करके । चिन्मय चिंतामणि निजस्वरूप निःशल्यभाव में परिणामते ।।
ही प्रतिक्रमण कहे जाते, क्योंकि वे प्रतिक्रमगामय हैं । साधू शुद्ध आत्मध्याती निज में ही निर्विकल्प है ||३||
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इह हि निःशल्यभावपरिणतमहातपोधन एव निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युक्तः । स्त्रियतो निःशल्यस्वरूपस्य परमात्मनस्तावद् व्यवहारनयबलेन कर्मपंकयुक्तत्वात् विज्ञानमायामिथ्या शल्यत्रयं विद्यत इत्युपचारत: । अत एव शत्यत्रयं परित्यज्य परमनिः त्यस्वरूपे तिष्ठति यो हि परमयोगी स निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युच्यते यस्मात् स्वरूपगतवास्तवप्रतिक्रमणमस्त्येवेति ।
गाथा ८७
अन्वयार्थ --- [ यः तु साधुः शल्यभावं त्यक्त्वा ] जो साधु ल्यभाव का त्याग करके [निःशल्ये परिणमति ] निःशल्य भाव में परिणमन करता है | सः प्रतिक्रमणं चिच्यते ] वह प्रतिक्रमण कहा जाता है [ यस्मात् | क्योंकि [ प्रतिक्रमणमयो भवेत् ] वह प्रतिक्रमणमय होता है ।
टीका — निःस्यभाव से परिणत महातपोधन ही निश्चय प्रतिक्रमणस्वरूप ऐसा यहां पर कहा है ।
निश्यनय से आत्मा निःशल्यस्वरूप परमात्मा है, फिर भी व्यवहार के दिल से कर्मपंक से युक्त होने से उस आत्मा के निदान, माया और मिथ्या ये तीन शल्य विद्यमान हैं, ऐसा उपचार से कहा है । अतएव तीनों शल्यों का त्याग करके जो परमयोगी परम निःस्वरूप में स्थित होते हैं, वे निश्चयप्रतिक्रमण स्वरूप हैं, ऐसा कहा जाता है, क्योंकि स्वरूप को प्राप्त होना ही वास्तविक प्रतिक्रमण है ।