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________________ से परिपूर्ण प्रात्मा को ही जानता है अत: पात्मन्न कहलाता है। उन विकल्पों के प्रतिफलित होने में लोकालोक के समस्त पदार्थ कारण होते हैं अतः व्यवहारनय से उन सबका भी शरता अर्थात् सर्वज्ञ, द्रष्टा प्रर्थात् सर्वदी कहलाता है। जब जीव का उपयोग-ज्ञानदर्शन स्वभाव, शुभ अशुभ रागादिक विकारी भावों से रहित हो जाता है तब वह शुद्धोपयोग कहा जाता है । परिपूर्ण शुद्धोपयोग यथास्यात चारित्र का भविनाभादी है। यथाख्यातचारित्र से अविनाभावी शुद्धोपयोग के होने पर वह जीव प्रन्समुहूर्त के अन्दर निगम से केवलशानी बन जाता है। एस अधिकार में कुन्दकुन्द स्वामी ने ज्ञान और दर्शन के स्वरूप का सुन्दर विश्लेपणा मिया है । इसी ग्रहोपयोग के फलस्वरूप जीव नाटकमाँ का सर कर प्रध्यानाध, प्रनिन्द्रिय, अनुपम, पुण्य पाप के विकल्प से रहित, पुनरागमन से रहित, नित्य, भचल प्रौर पर के नालम्बन से रहित निर्माण को प्राप्त होता है। कर्म रहित प्रात्मा लोकाग्र तक हो जाता है क्योंकि धर्मास्तिकाय का अभाव होने से उसके प्रागे गमन नहीं हो सकता। मागे नियमसार की संस्कृत टीका ग्रार उसके रचयिता श्री पद्मप्रभमनधारी देव पर प्रकाश डाला जाता है। नियमसार के संस्कृत टीकाकार - श्री पद्मप्रभमलधारी देव नियमसार के संस्कृत टीकाबार भी पद्यप्रसमलधारी दव है। संस्कृत के महान विद्वान थे, गरा पद्य की रचना में सिख सरस्वतीक थे। नियमसार के अधिकारान्त-पुष्पिका-वावयरे में इन्होंने अपने नाम के पूर्व "सुकविजन पयोजमिव", "पंचेन्द्रिय प्रस रवर्वित" और "गात्रमात्र परिग्रह" ये तीन विशेषण लगाये हैं। इन विशेषणों से उनके पाण्डित्य, जितेन्द्रियत्व और निन्यता का स्पष्ट बोध होता है। "मलधारी" विशेषण से शारीरिकनि:म्पहता का भान होता है। श्री पद्मप्रभमलघारी देव, श्री अमृनचन्द्रा वायं विचिन समयमार की प्रात्मख्याति टीका से पूर्ण प्रभावित हैं। जिस प्रकार अमृतचन्द्राचार्य ने समास बहुल एवं प्रसिद्ध नूतन-कुतन शन्दावसि से परिपूर्ण गद्य का प्रयोग किया है तथा कलर काव्यों के द्वारा उस गद्य के प्रतिपाद्य प्रर्य को प्रस्फुटित किया है उसी प्रकार न्हनि भी समासबहुल एवं प्रसिद्ध तूतन-नूसन शब्दावनि से परिपूर्ण गद्य का प्रयोग किया है तथा कलश काव्यों के द्वारा उस गद्य को समलंकृत किया है।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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