SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमार्थ - प्रतिक्रमण अधिकार मोत्तू प्ररुद्द, झारणं जो झादि धम्मसुक्कं वा । सो पडिकमणं उच्चड, जिणवरसिद्दिसुत्तेसु ॥६६॥ मुक्त्वार्तरौद्रं ध्यानं यो ध्यायति धर्मशुक्लं वा । स प्रतिक्रमणमुच्यते जिनवर निर्दिष्टसूत्रेषु ॥८॥ जो चार प्रकार आर्तध्यानों, श्री रौद्रध्यान को नज करके । चारों व धर्मध्यान करते, या शुक्लध्यान धरने रुचि मे ॥ जिनवर के भाषित सूत्रों में, वे ही प्रतिक्रमण कहते हैं। प्रतिक्रमणरूप से परिगत हो, मुनि प्रतिक्रमण बन जाते हैं ||२६|| सीलेसि संपत्ती रुिद्ध णिस्स आगवो जावो । कम्मर विपक्को रायजोगो केवली होई ॥३५॥ [ २२७ I अर्थ- जो अठारह हजार शील के भेदों के स्वामी हो चक है, जिनके कर्मों के आने आस्रव सर्वथा बंद हो गया है, तथा सत्त्व और उदय अवस्था को प्राप्त कर्मरूप रज की सर्वथा निर्जरा होने से उस कर्म से सर्वथा मुक्त होने के सन्मुख हैं, वे योग रहित केवली चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली कहलाते हैं । अभिप्राय यह हुआ कि त्रिप्ति के बिना ध्यान की सिद्धि असंभव है और ध्यान की सिद्धि के बिना कर्मों का नाश करना असंभव है तथा कर्मों के नाश हुए बिना सिद्धपद को प्राप्त करना जो कि शुद्ध निश्चयनय से आत्मा का ही स्वरूप है ऐसे आत्मा के शुद्धस्वरूप को प्राप्त करना असंभव ही है । गाथा ८६ अम्वयार्थ—-[यः] जो [ आर्लरौद्र मुक्त्वा ] आर्तध्यान और रौद्रध्यान को छोड़करके [ धर्मशुक्लं वा ध्यायति ] धर्मध्यान और शुक्लध्यान को ध्याता है [ सः ] यह साधु [ जिनवर निर्दिष्टसूत्रेषु ] जिनेंद्रदेव द्वारा कथित सूत्रों में [ प्रतिक्रमणं उच्यते ] प्रतिक्रमण कहा जाता है । १. गोम्मटसार जीवकांड | । किस
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy