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________________ DireATEHEK::.. २२६ ] नियमसार ( हरिणी) अथ तनुमनोवाचा त्यक्त्वा सदा विकृति मुनिः सहजपरमां गुप्ति संझानपुजमयीमिमाम् । भजतु परमां भव्यः शुद्धात्मभावनया समं भवति विशदं शीलं तस्य त्रिगुप्तिमयस्य तत् ॥११८।। से भिन्न चितवन करने लगा किंतु मेरा मस्तक हिलने से वह ग्वीर गिर गई और अग्नि शांत हो गई । किंतु मंत्रवादी डरकर भाग गया। प्रातः गांव से जिनदत्त सेठ आकर मुझे ले गये और तुकारी के यहां से लाक्षामूल तेल लाकर अनेकों औषधियों से मेरा उपचार किया । तबसे मुझे अभी तक कायगुप्ति की सिद्धि नहीं हुई है । "जो मनि विगुप्ति के पालक होते हैं वे नियम से अवधिज्ञानी होते हैं। तीनों में से यदि एक भी गप्ति नहीं है तो अवधि मन 'पर्यय और केवलज्ञान इनमें से एक ज्ञान भी प्रगट नहीं हो सकता है।" [ अब टीकाकार मुनिराज गप्ति कं महत्त्व को बतलाते हुए श्लोक वाहते हैं-] (११८) श्लोकार्थ-मन, वचन और कार की विकृति को सदा छोड़कर भव्य मुनिराज राम्यग्ज्ञान की पुजमयी इस सहज परम गप्ति को शुद्धात्मा की भावना से सहित उत्कृष्टरूप से भजो-संवन करो, क्योंकि त्रिगुप्तिमय उन साधु के ही बाई पवित्र शील होता है। भावार्थ-जो मनिराज पूर्णतया मन, वचन, काय के व्यापारों का निरोध कर देते हैं और शुद्ध आत्मतत्त्व में अपने उपयोग को स्थिर कर लेते हैं वे ही विशद शील अर्थात निश्चय चारित्र को प्राप्त कर लेते हैं । अनंतर त्रिगुप्ति के प्रसाद से घातिया कर्मों का नाश करके अठारह हजार शील के भेदों को पूर्ण करके .............- - -... -. ' aka". ... ... .nezniti . ... . . .
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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