SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमार्थप्रतिक्रमण अधिकार [ २२५ स्थान पर मुनियों को आहार देना । रानी चलना ने राजा के अभिप्राय को जान लिया . और धर्म का अपमान न होने पाये इस भाव से आहारार्थ आये हुये मुनियों को नमस्कार करके कहा--हे मनोगुप्ति आदि त्रिगुप्तिपालका पुरुषोत्तम मुनिराजों ! आप आहारार्थ राजमन्दिर में निाटं। इतना गनने की तीनों मनिराज दो उंगलियों को उठाकर वापस चले गये । अनंतर गुणसागर मनिराज अवधिज्ञानी थे वे त्रिगुप्ति के धारक थे आ गये, वे भोजनालय तक गये किंतु अवधिज्ञान के बल से उन्हें शीव ही अपवित्रता का ज्ञान हो गया और वे मौन छोड़कर स्पष्ट बात कहकर विना आहार किये वन में चले गये। अनन्तर राजा श्रेणिक ने प्रारम्भ में यापम गये मुनियों के पास जाकर विनम्र हो दो उंगली दिखाने के बारे में पूछा। प्रथम धर्मघोग मनिराज वोले गजन् ! मैं एक समय कौशांबी नगरी के मंत्री गाडवेग के घर पर आहार कर रहा था उनकी । पत्नी के हाथ में अकस्मात् एक ववल नीचे गिर गया, उम समय मरी दृष्टि नीने गई, गरुड़दत्ता के पैर का अंगूठा देग्यकार मरे मन में अचानक मेरी पत्नी लक्ष्मीमनी के अंगूठे की याद आगई । उस समय गे आज नक मेरे मनोगुनि की सिद्धि नहीं हुई है । अनन्तर द्वितीय मनि जिनपाल में प्रश्न करने पर उन्होंने कहा कि-भुमि तिलक के राजा बसुपाल की बमुकांना कन्या के लिये चंदप्रद्योतन का बम्पाल के साथ युद्ध हो रहा था । वनुपाल धर्मात्मा था उसके हारने का प्रसंग देखकर एक मनुष्य ने | कहा कि दर्शनार्थ आये हुये राजा को आप अभयदान दे दीजिये, परन्तु मैंने अपना १ कर्तव्य न समझ मौन रखा किंतु उस समय वनरक्षिका देवी ने दिव्य वाणी से अभयदान सूचक आशीर्वाद दे दिया। राजा ने तथा सवने मेरा आशीर्वाद ही समझा । कालांतर । मैं इसका स्पष्टीकरण भी हो गया फिर भी उसी कारण से मुझे आज तक बचनगन्ति की सिद्धि नहीं हुई है। पुनः मणिमाली मुनिराज से प्रश्न करने पर उन्होंन कहा कि मैं उग्रतपस्वी सिद्धांत का ज्ञाता पृथ्वी पर अकेला विहार करता हुआ उज्जयिनी के श्मशान में मुर्दे के आसन से ध्यान में लीन था। एक मंत्रवादी वैताली विद्या की सिद्धि के लिये मुझे मृतक समझ मस्तक पर एक चूल्हा रखकर मृत कपाल में खीर पकाने लगा। अग्नि की ज्वाला से यद्यपि मैं नरकादि दुःखों को स्मरण करने लगा, तथा आत्मा को शरीर
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy