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________________ नियमसार ध्यान विकल्पस्वरूपाख्यानमेतत् । स्वदेशत्यागात् द्रव्यनाशात् मित्रजन विदेश गमनात् कमनीयकामिनीवियोगात् अनिष्टसंयोगाद्वा समुपजातमार्तध्यानम्, चौरजार शाश्रवजनवधबंधनसनिबद्धहाद्व षजनितरौद्रध्यानं च एतद्वितयम् अपरिमितस्वर्गापवर्ग सुखप्रतिपक्षं संसारदुःखमूलत्वानिरवशेषेण त्यक्त्वा, स्वर्गापवर्गनिः सोमसुखमूल स्वात्मा श्रितनिश्चयपरमधर्मध्यानम्, ध्यानध्येयविविधविकल्प विरहितान्तर्मु खाकारसकलकरणग्रामातीतनिर्भेदपरमकलासनाथनिश्चयशुक्लध्यानं च ध्यात्वा यः परमभावभावना परिणतः भय्यवरपु 'डरीकः निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपं भवति, परमजिनेन्द्रवदनार वित्तः विनिर्गतद्रव्यश्रुतेषु विदितमिति । ध्यानेषु च चतुर्षु हेयमाद्यं ध्यानद्वितयं, त्रित तावदुपादेयं सर्वदोपादेयं च चतुर्थमिति । तथा चोक्तम् २२८ ] ध्यान के भेदों के स्वरूप का यह कथन है । अपने देश के त्याग में, अव्य के नाश से, मित्रजनों के विदेश चले जाने से सुन्दर स्त्रियों के वियोग में अथवा अनिष्ट के संयोग से उत्पन होने वाला आध्या है, और चोर, जार, शत्रुजनों के मारने, बांधने से सम्बन्धित महान् द्वंप भाव से उत्पन्न होने वाला रौद्रध्यान है, ये दोनों ध्यान अपरिमित स्वर्ग- मोक्ष मुख के विरोधी है क्योंकि ये संसार के दुःखों के मूलकारणभूत हैं इसलिये इन दोनों ध्यानों को संपूर्णतया छोड़ करके, स्वर्ग और मोक्ष के असीम सुख का मूल ऐसा जो अपनी आत्मा के आश्रि निश्चयपरम धर्मध्यान है और ध्यान ध्येय के विविध विकल्पों से रहित, अंतर्मुखाकार संपूर्ण इन्द्रिय समूह से अनील भेद रहित - अनंत स्वरूप परमकलाओं से सहित ऐसा निश्चय शुक्लध्यान है, इन दोनों ध्यानों को ध्याकर जो परमभावरूप पारिणामिकमा की भावना में परिणत हैं ऐसे भव्यवरजनों में भी उत्तम साधु निश्चय प्रतिक्रमण स्वरूप होते हैं, परमजिनेंद्रदेव के मुखकमल से निकले हुए द्रव्यश्रुतों में यह कथन किया गया है। टीका Plea - यहां चार ध्यानों में आदि के दो ध्यान हेय हैं, तीसरा ध्यान प्रारम्भ में उपादेय है और चौथा ध्यान सदा उपादेय है । कहा भी है
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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