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________________ -- - - - ८०] नियमसार एकस्मिन् समयेऽप्युत्पावथ्ययध्रौव्यात्मकत्वात् सक्षमऋजुसूत्रनयात्मकः । स्कन्धपर्यायः स्वजातीयबन्धलक्षणलक्षितत्वादशुद्ध इति । ( मालिनी ) परपरिणतिहरे शुद्धपर्यायरूपे सति न च परमाणोः स्कन्धपर्यायशब्दः । भगवति जिननाथे पंचबाणस्य वार्ता न च भवति यथेयं सोऽपि नित्यं तथैव ।।४।। - -- विशेषार्थ-- ''भेदादणुः' इस सूत्र की टीका में भट्टाकलंकदेव ने कहा है कि इस सत्र के पृथक् करने का अभिप्राय यही है कि 'अगु' भेद से ही बनता है। अनादिकाल से शुद्ध अणु कभी भी नहीं था। जैसे कि सिद्ध जीव संसार पूर्वक ही मुक्त हुए हैं अनादिकाल से मुक्त रूप कभी भी नहीं थे । --- - -- | अब टीकाकार परमाणु को पर परिणति से रहित बताते हुए उदाहरण देकर स्पष्ट करते हुए श्लोक कहते हैं- ] ( ४२ ) श्लोकार्थ--परमाण में पर परिणति में दूर शुद्ध पर्याय रूप होने पर उसमें स्कन्ध की पर्यायरूप शब्द नहीं है। जैसे कि जिनेन्द्र भगवान् में कामदेव की वार्ता नहीं है उसी प्रकार से परमाणु भी नित्य है उसमें शब्द रूप पर्याय नहीं है । भावार्थ-यहां टीकाकार अपने कलश में कहते हैं कि जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान में कामदेव की बात भी नहीं है उसी प्रकार से परमाण में शब्द पर्याय नहीं है कि शब्दपर्याय पुद्गल स्कन्ध की ही है। परंमाण नित्य द्रव्य है पर-दूसरे अण अथवा जीव आदि के सम्पर्क से रहित है शुद्धपर्याय वाला है उसमें स्कन्ध की पर्याय असम्भव हैं। १. तत्त्वार्थवातिक भाग २१० ४-९-४ प्र. ५ मूत्र २७ ।।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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