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________________ शुद्धोपयोग अधिकार [ ४४१ ज्ञानं परप्रकाशं तदा ज्ञानेन दर्शनं भिन्नम् । न भवति परद्रव्यगतं दर्शन मिति वरिणतं तस्मात् ।।१६२॥ यदि मात्र परप्रकाशक ये ज्ञान है तब तो। इस ज्ञान से वो दर्शन होवेगा भिन्न तो ।। क्योंकि तुम्हारे मत से दर्शन स्वगा-रहे । नहि परप्रकाश करता परद्रव्यमत न है ॥१६२।। पूर्वसूत्रोपात्तपूर्वपक्षस्य सिद्धान्तोक्तिरियम् । केवलं परप्रकाशकं यदि चेत् ज्ञानं तदा परप्रकाशकप्रधानेनानेन ज्ञानेन दर्शनं भिन्नमेव । परप्रकाशकस्य ज्ञानस्य चात्मप्रकाशकस्य दर्शनस्य च कथं सम्बन्ध इति चेत सह्यविध्ययोरिव अथवा भागीरथीश्रीपर्वतवत् । आत्मनिष्ठं यत् तद् दर्शनमस्त्येव, निराधारत्वात तस्य जानस्यशुन्यलापत्तिरेव, अथवा अत्र तत्र गतं ज्ञानं तत्तद्रव्यं सर्वं चेतनत्वमापद्यते, अतस्त्रिभुवने न कश्चिदचेतनः अन्वयार्थ-[ ज्ञानं पर प्रकाशं ] ज्ञान परप्रकाशी है [ तदा ] तब तो [ ज्ञानेन दर्शनं भिन्न ] ज्ञान से दर्शन भिन्न सिद्ध हुआ, [दर्शनं परद्रव्यगतं न भवति] क्योंकि दर्शन परद्रव्यगत-परद्रव्यों का प्रकाशक नहीं होता है [ इति वर्णितं तस्मात् ] ऐसा पूर्व में वर्णन किया है ।। टोका---पूर्व सूत्र में कथित पूर्वपक्ष का यह सिद्धान्त संबंधी कथन है । यदि ज्ञान केवल परप्रकाशी होवे तो परप्रकाशन में प्रधान ऐसे इस ज्ञान से दर्शन भिन्न हो रहेगा । और यदि ऐसा है तो परप्रकाशी ज्ञान और स्वप्रकाशी दर्शन : का संबंध कसे होगा ? जैसे कि सह्य और विध्य पर्वत का अथवा भागीरथी और । श्रीपर्वत का संबंध नहीं है । जो आत्मा में स्थित है वह दर्शन ही है, तब तो निराधार होने से उस ज्ञान । को शून्यता की ही आपत्ति होती है । अथवा जहां, जहां ज्ञान जावेगा, वे वे सभी द्रव्य । चेतनरूप हो जावेंगे, अतः त्रिभुवन में कोई अचेतन पदार्थ नहीं सिद्ध होगा, ऐसा इस
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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