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________________ ४४२ ] नियमसार पदार्थः इति महतो दूषणस्यावतारः । तदेव ज्ञानं केवलं न परप्रकाशकम् इत्युच्यसे है शिष्य तहि दर्शनमपि न केवलमात्मगतमित्यभिहितम् । ततः खल्विदमेव समाधानं सिद्धान्त हृदयं ज्ञानदर्शनयोः कथंचित् स्वपरप्रकाशत्वमस्त्येवेति । तथा चोक्तं श्रीमहासेनपंडितदेवैः तथा हि- "ज्ञानाद्भिनो न नाभिन्नो भिन्नाभिन्नः कथंचन । ज्ञानं पूर्वापरीभूतं सोऽयमात्मेति कीर्तितः ॥” ( मंदाक्रांता ) आत्मा ज्ञानं भवति न हि वा दर्शनं चैव तद्वत् ताभ्यां युक्तः स्वपरविषयं वेत्ति पश्यत्यवश्यम् । संज्ञाभेदाद कुलहरे चात्मनि ज्ञानदृष्टयोः भेदो जातो न खलु परमार्थेन बह्न ष्णवत्सः ॥। २७८ ।। महान दूषण का प्रसंग हो जावेगा । इस दोष के भय से यदि तुम ऐसा कहो कि ज्ञान केवल परकाशी नहीं है तब तो हे शिष्य ! दर्शन भी केवल आत्मगत नहीं है, ऐसा ही कहना होगा । इसलिये निश्चितरूप से यही समाधान सिद्धांत के रहस्यरूप है कि ज्ञान और दर्शन कथंचित् स्वपरप्रकाश हैं ही हैं । उसी प्रकार से श्री महासेन पंडित देव ने भी कहा है " श्लोकार्थ - ज्ञान से आत्मा न भिन्न है और न अभिन्न है किंतु कथंचित् भिन्नाभिन्न है, क्योंकि पूर्व और अपर दोनों अवस्थाओं में व्याप्त हुआ जो ज्ञान है, सो यह आत्मा है ऐसा कहा गया है।" उसी प्रकार से [ अब टीकाकार मुनिराज इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं - ] (२७८) श्लोकार्थ - आत्मा ( एकांत से ) ज्ञान नहीं है, उसीप्रकार दर्शन भी नहीं है, किंतु उन दोनों से युक्त हुआ वह स्वपर विषय को जानता और देखता अवश्य है,
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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