SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 524
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वृद्धोपयोग अधिकार [ ४८१ यकर्माभावान्नैव विद्यते बाधा, पंचविधनकर्माभावान्न मरणम्, पंचविधनो कर्महेतु भूतकर्मपुद्गलस्वीकाराभावान्न जननम् । एवंलक्षणलक्षिताक्षुण्ण विक्षेपविनिर्मुक्तपरमतत्त्वस्य सदा निर्वारणं भवतीति । ( मालिनी ) भवभव सुखदुःखं विद्यते नॅब बाधा जननमरणपीडा नास्ति यस्येह नित्यम् । तमहमभिनमामि स्तौमि संभावयामि स्मरसुखविमुखस्सन् मुक्तिसौख्याय नित्यम् ॥ २६८ ॥ पीड़ा नहीं है, असातावेदनीयकर्म के अभाव से उन्हें बाधा भी नहीं है, पांच प्रकार के तथा पांच प्रकार के नोकर्म के लिये उन्हें जन्म भी नहीं है परमतत्त्व को सदा निर्वाण नोकर्म के अभाव से उनके मरण भी नहीं है कारणभूत ऐसे कर्मपुद्गलों को स्वीकार न करने से इन लक्षणों में लक्षित, अखण्ड और त्रिक्षेपरहित ऐसे होता है । भावार्थ- संसार में कर्म के निमित्त से होनेवाले विभावों के अभाव से परमतत्त्व स्वरूप परमात्मा ही निर्वाण के अधिकारी हैं। यहां पंचवित्र नोर्म से औदारिक आदि पांच शरीरों का ग्रहण समझना चाहिए । [ अब टीकाकार श्री मुनिराज उसी परमतत्त्व स्वरूप आत्मा की आराधना के लिये प्रेरणा देते हुए दो श्लोक कहते हैं--] ( २८ ) श्लोकार्थ - इस लोक में जिसके हमेशा भव भव के दुःख और सुख नहीं है, बाधा नहीं है तथा जन्म, मरण और पीड़ा भी नहीं है । मैं कामसुख से विमुख होता हुआ मुक्तिसुख की प्राप्ति के लिये नित्य ही उस परमात्मतत्त्व को नमस्कार करता हूं, उसकी स्तुति करता हूं और उसी की सम्यक् प्रकार से भावना करता हूँ ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy