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________________ निगममार रगवि दुक्खं गवि सुक्खं, णवि पीडा व विज्जदे बाहा । णवि मरणं णवि जणणं, तत्थेव य होइ णिवाणं ॥१७६॥ नापि दुःखं नापि सौख्यं नापि पीडा नैव विद्यते बाधा । नापि मरणं नापि जननं तत्रैव च भवति निर्वाणम ||१७६।। जहा प न दुःख कित्रिन नहि इंद्रियों का सुख । पीड़ा नहीं है कुछ भी बाधा भी नहीं कन्छ । नति गृत्य भी जहां पर नहि जन्म भी रहे। होता वहीं गे निग्नित निर्वाण नान ये ।।१७।। इह हि सांसारिकविकारनिकायाभावाभिर्वाणं भवतीत्युक्तम् । निरुपरागरत्नत्रयात्मकपरमात्मनः सततान्तमु खाकारपरमाध्यात्मस्वरूपनिरतस्य तस्य याऽशुभपरिणतेरभावान्न चाशुभकर्म अशुभकर्माभावान्न दुःखम्, शुभपरिणतेरभावान्न शुभकर्म शुभकर्माभावान्न खलु संसारसुखम्, पीडायोग्ययातनाशरीराभावान्न पीडा, असातावेदनी .-.. ....- -. ... .. ....-.- - गाथा १७६ __ अन्वयार्थ—[ दु.खं न अपि ] जहां दुःख भी नहीं है. [ सौख्यं न अपि ] मुम्म भी नहीं हैं. [ पीड़ा अपि न ] पीड़ा भी नहीं है [ बाधा न एव विद्यते ] बाबा भी नहीं है [ मरणं न अपि ] मरण भी नहीं है तथा [ जननं अपि न ] जन्म भी नहीं है [तत्र एव च निर्वाणं भवति] वहीं पर निर्वाण है। टीका--सांसारिक विकारसमूह के अभाव से ही निर्वाण होता है ऐसा यहां । पर कहा है। निरन्तर अंतम खाकार से परिणत ऐसे परम अध्यात्मस्वरूप में लीन हये ऐसे उन निम्पराग रलत्रयात्मक परमात्मा में अशुभपरिणति का अभाव होने से अशुभकर्म नहीं हैं और अशुभकर्म के अभाव से उनके दुःख भी नहीं है तथा शुभ परिणति के अभाव से उनके शुभकर्म नहीं है और शु., कर्म के न होने से वास्तव में उन्हें संमार के सुख भी नहीं हैं, पीड़ा के योग्य यातनारूप शरीर के अभाव से उन्हें
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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