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________________ शुद्धोपयोग प्रधिकार [ ४७६ तथा हि-- ( शार्दूलविक्रोडिन । भावाः पंच भवन्ति येष सततं भावः परः पंचमः स्थायी संसृतिनाशफारणमयं सम्यग्दृशां गोचरः । तं मुक्त्वाखिलरागरोषनिकर बुद्ध्वा पुनर्बुद्धिमान एको भाति कलौ युगे मुनिपतिः पापाटधीपावकः ॥२६७।। ..-.- . तुम समझो । इधर आवो, आवो तुम्हाग पद यह है, यह है जहां पर शुद्ध-शुद्ध चैतन्य धातु अपन रस के अतिशय भार से स्थायी भाव को प्राप्त हो रहा है।" भाई-आत्रवः ध्यजीवों को अन्यन्त कम्णाभाव मे समझा रहे । हैं कि अरे भव्य ! राग से अंधे हये ये मंसारो प्राणी अनादिकाल में अपने स्थान से । च्युत होते हुए अन्य गिगक निन्दास्थान में भटक रहे हैं वास्तव में यह तुम्हारा स्थान नहीं है, यहां दो-दो बार कहने से आचार्य श्री की अतिशय कम्णा झलक रही है । वास्तव में आचार्य बड़े ही प्रेम में बुला रहे है कि भाई ! इधर आवो आवो जो कि मोक्षपद है और जहां कि चैनन्यमयी बात स टिन तम्हारा दिव्य शरीर है जो कि अविनाशी है। उसीप्रकार में [ टीकाकार मनिराज इस कलिकाल में भी महामुनि की। प्रशंसा करते हुए कलशकाव्य करते हैं- 1 (२६७) श्लोकार्थ-भाव पाँच होते हैं जिनमें यह परम पंचमभाव सनन् स्थायी है, संसार के नाम का कारण है और सम्यग्दष्टियों के गोचर है । पापरूपी अटवी को जलाने के लिये अग्नि सदश ऐसे बुद्धिमान एक मनिराज ही उस पंचमभाव को जानकर पुन: समस्त रागद्वप के समह को छोड़कर इस कलियुग में शोभायमान होते हैं। भावार्थ-टीकाकार का स्पष्ट कहना है कि आज इस कलिकालरूप निकृष्ट : काल में भी बीतरागी महामुनि पंचमभाव का आश्रय लेने वाले निःस्पृह ऐसे विचरण करते हैं।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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