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नियममार तोन्द्रियम्, त्रिषु तत्त्वेषु विशिष्ट त्वादनौपम्यम् संसृतिपुरंधिकासंभोगसंभवसुखदुःखाभावात्पुण्यपापनिमुक्तम्, पुनरागमनहेतुभूतप्रशस्ताप्रशस्तमोहरागढषाभावात्पुनरागमनविरहितम, नित्यमरणतद्भवमरणकारणकलेवरसंबन्धाभावान्नित्यम्, निजगुणपर्यायप्रच्यवनाभावावचलम, परद्रव्यावलम्बनाभावादनालम्बमिति । तथा चोक्त श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः--
( मावाना) "आसंसारात्प्रतिपदममी गगिणो नित्यमत्ताः सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्यमंधाः । एततेत: पमिदमिदं यत्र चैतन्यधातु: शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति ॥"
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समस्त दुष्ट पाररूपी वीर वैगरी को रोना उपद्रव के अगोचर एंसे सहज ज्ञानरूपी गढ़ में निवास होने में जो अव्याबाध है, संपूर्ण आत्मप्रदशों में भरे हए चिदानन्दमय होने से अतीन्द्रिय हैं, नीनों तत्त्व में बहिरात्मतत्त्व, अन्तरात्मतत्त्व और परमात्मतत्त्व इन तीनों में विशेष होने से जो अनुपम हैं, संसाररूपी स्त्री के सम्भोग से उत्पन्न होनेवाले सुख दुःखों का अभाव होने से जो पुण्य और पाप से निर्मुक्त हैं, पुनरागमन के कारणभूत से प्रगरन और अप्रशस्त मोह, राग, द्वेष का अभाव हो जाग में जो पुनरागमन से रहित है, निन्यमग्ण और तद्भव मरण के कारणभूत शरीर के सम्बन्ध का अभाव होने से जो निन्य है, अपनी गुण और पर्यायों से च्युत नहीं होने से अचल हैं और परद्रव्य के आलम्बन का अभाव होने से जो निरालंब हैं। इन । उपर्युक्त गुणों मे बिशिष्ट सिद्ध परमात्मा होते हैं।
इसीप्रकार से श्री अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा है--
श्लोकार्थ-'हे 'अंधप्राणियों ! अनादि संसार से पद-पद पर ये रागी जीव नित्य ही मत्त हो रहे हैं, और जिस पद में सो रहे हैं, वह पद अपद है, अपद है ऐसा
१. समयमार कलश श्लोक १३८ ।