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शुद्धोपयोग अधिकार
भज भजसि निजोत्थं दिव्यशर्मामृतं त्वं सकलविमलबोधस्ते भवत्येव तस्मात् ।।२९६।।
श्रव्वाबाहमणदियमणोवमं पुण्णपावजिम्मुक्कं । पुणरागमणविरहियं णिच्च प्रचलं अणालंबं ॥ १७८ ॥
अन्याबाधमतीन्द्रियमनुपमं पुण्यपापनिर्मुक्तम् । पुनरागमनविरहितं नित्यमचलमनालंबम् ॥१७८॥
कथन है ।
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बाबा रहित प्रतीन्द्रिय अनुपम कहा गया । सत्र पुण्य पराय विरहित परिशुद्ध हो गया । पुनरागमन विर्वाजन भी नित्य रूप है । प.से है अवपूर्ण है ॥१७८॥
अत्रापि निरुपाधिस्वरूपलक्षण परमात्मतत्त्वमुक्तम् । अखिलदुरघवीरबंरीवरूथिनीसंभ्रमागोचरसहजज्ञानदुर्गनिलयत्वादव्याबाधम्, सर्वात्मप्रदेशभरितचिदानन्दमयत्वाद
,
ऐसे निज में उत्पन्न हुए दिव्यनुखरूपी अमृत को तुम भजो यदि उसे भोग तो तुम्हे सकल विमलज्ञान प्रकट होगा ।
भावार्थ- शुद्ध वात्मतत्त्व की उपासना से ही पूर्ण केवलज्ञान प्रगट होता है, इसलिए उसीका आश्रय लेना श्रेयस्कर है ।
गाथा १७६
अन्वयार्थ - ये सिद्ध भगवान् [ अब्याबाधं ] अव्यावाथ, [ अतीन्द्रियं ] अतीन्द्रिय, [ अनुपसं] अनुपम [ पुण्यपापनिर्मुक्त' ] पुण्य-पाप से रहित, [ पुनरागमनविरहितं ] पुनरागमन से रहित, [ नित्यं ] नित्य, [ अचलं ] अचल और [ निरालंबं ] निरालंब हैं ।
टीका- यहां पर भी निरुपाधिस्वरूप लक्षणवाले ऐसे परमात्मतत्व का