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________________ १२४ ] तथा हि नियमसार ( अनुष्टुभ् ) "चिच्छक्तिव्याप्त सर्वस्वसारो जीव इयानयम् । अलोऽतिविधाः सर्वे भावाः पौद्गलिका प्रभो ॥ " ( मालिनी ) अनवरत मखण्डज्ञान सद्भावनात्मा व्रजति न च विकल्प संसृतेर्घोररूपस् । अतुलमनघमात्मा निर्विकरूपः समाधिः परपरिणतिदूरं याति चिन्मात्रमेषः ॥ ६० ॥ v ज्ञानार्थवाचक है ऐमी ज्ञानशक्ति मात्र आत्मा की अपनी ग्रात्मा में ही अनुभव करना चाहिये | श्लोकार्थ - " यह जीव चित्शक्ति ज्ञान के अविभागी प्रतिच्छेदों से व्याप्त सर्वस्व सारभूत इतना मात्र ही है, इससे अतिरिक्त सभी भाव पौद्गलिक हैं- - ज्ञान शून्य हैं ।" अर्थात् चैतन्य से अतिरिक्त सभी शरीर आदि पदार्थ पौद्गलिक ही हैं ऐसा अभिप्राय है | [ अब टीकाकार श्री मुनिराज निर्विकल्प समाधि को महिमा बतलाते हुए और श्री वीर प्रभु के गुणों का स्मरण करते हुए दो श्लोक कहते हैं । ] (६०) श्लोकार्थं - सतत रूप से अखण्ड ज्ञान की सद्भावना रूप आत्मा संसार के घोर दुःख रूप विकल्प को प्राप्त नहीं होता है, किन्तु निर्विकल्प समाधि स्वरूप यह ग्रात्मा अतुल, निर्दोष पर परिणति से दूर चिन्मात्र को प्राप्त कर लेता है । भावार्थ- शुद्धनिश्चयनय का अवलम्बन लेकर यह आत्मा अपने को अखण्ड ज्ञान स्वरूप भावित करते हुए संसार के दुःखरूप जन्म, मरण, कुल, योनि श्रादि १. समयसार कलश, ३६ ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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