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________________ शुद्धभाव अधिकार [ १२३ स्थूलसूक्ष्मकेन्द्रियसंश्य संज्ञिपंचेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपर्याप्तापर्याप्तकसमाथ चतुर्दशजीवस्थानानि । गोन्द्रियकाययोगवेदकषायज्ञानसंयम दर्शनलेश्या मध्यसत्यवश्वसंश्याहार विकल्पलक्षणानि मार्गणास्थानानि । एतानि सर्वाणि च तस्य भगवतः सरमात्मनः शुद्ध निश्चयनयबलेन न सन्तोति भगवतां सूत्रकृतामभिप्रायः । तथा चोक्तं श्रीभवमृतचंद्रसूरिभिः- ( मालिनी ) " सकलमपि विहायाह्नाय चिच्छक्तिरिक्त स्फुटतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्तिमात्रम् । हममुपरि चरं चारुविश्वस्य साक्षात् कलयतु परमात्मात्मानमात्मन्यनंतम् ॥" बातों के पर्याप्त अपर्याप्तक भेद होने से जीवस्थान ( जीवसमास ) के चौदह भेद होते हैं । गति, इन्द्रिय, काय, योग वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और प्रहार इन भेद स्वरूप चौदह मार्गणा स्थान होते हैं । -- ये सभी उन भगवान् परमात्मा के शुद्ध निश्चयनय के बल से नहीं हैं ऐसा भगवान् सूत्रकार श्री कुन्दकुन्ददेव का अभिप्राय है । उसीप्रकार श्री अमृतचन्द्रसूरि से भी कहा हैलोकार्थ- " चैतन्यशक्ति से अतिरिक्त सम्पूर्ण भावों को भी शीघ्र ही छोड़कर और चैतन्य शक्ति मात्र अपनी आत्मा को स्पष्टतया श्रवगाहन करके आत्मा साक्षात् विश्व के ऊपर स्फुरायमान होते हुए परम उत्कृष्ट अनन्तरूप आत्मा को अपनी आत्मा में अनुभव करो ।" 91 - भावार्थ - यह आत्मा विश्व के अग्रिम भाग में लोकातिशायी माहात्म्य से कुरासान है अथवा जो थात्मा लोकालोक का परिच्छेदक है क्योंकि चारधातु १. समयसार कलश, ३५ । I
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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