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________________ 1 ८६ ] नियमसार समयावलिभेदेन तु द्विविकल्पोऽथवा भवति त्रिविकल्पः । प्रतीत: संख्याताव लिहत संस्थान प्रमाणस्तु ।। ३१ ।। व्यवहार काल के समय आवलि ये भेद दो । या भूत वर्तमान भात्रि तीन रूप वो || संसार में अबतक के जो संस्थान धरे है । उनके सदृश अनंत समय भूतकाल है ।। ३१ ।। व्यवहारकालस्वरूपविविध विकल्पकथनमिदम् । एकस्मिन्नभः प्रदेशे यः परमाणुस्तिष्ठति तमन्यः परमाणुमंन्दचलनान्लंघयति स समयो व्यवहारकालः । तादृशैरसंख्यातसमर्थः निमिषः, अथवा नयनपुट घटनायतो निमेषः । निमेषाष्टकः काष्ठा । षोढशभिः काष्ठाभिः कला । द्वात्रिंशत्कलाभिघंटिका । षष्टिनालिकमहोरात्रम् । वितर्मायः । गाथा ३१ अन्वयार्थ --- [ समयावलि मेवेन तु द्विविकल्प: ] समय और श्रावलि के भेद से काल दो प्रकार का है [ अथवा त्रिविकल्पः भवति ] अथवा त्रिभेद वाला - भूत, भविष्यत् वर्तमान भेद वाला होता है । [ अतीतः ] भूतकाल [ संख्यातावलिहतसंस्थान प्रमाणस्तु ] संख्यात प्रावलि से गुणित संस्थान प्रमाण है । टीका - यह व्यवहार के स्वरूप का और उसके अनेकों भेदों का कथन है । एक आकाश के प्रदेश पर जो परमाणु ठहरा हुआ है उसको मन्दगति से अन्य परमाणु उल्लंघन करता है उतना मात्र काल वह 'समय' नाम का व्यवहार काल है ऐसे असंख्यात समयों का एक 'निमिष' होता है अथवा नेत्र के पलक झपकने में जितना काल लगता है वह 'निमिष' है । आठ निमियों को एक 'काष्ठा' होती है, सोलह काष्ठाओं की एक 'कला', बत्तीस कलामों की एक 'घड़ी', साठ 'घड़ी' का एक दिनरात तीस दिन रात का एक मास दो मास की एक ऋतु, तीन ऋतुओं का एक प्रयत और दो अयन का एक संवत्सर होता है । ऐसा प्रावली आदि रूप से व्यवहार काल का क्रम कहा । इसप्रकार से यह व्यवहार काल समय और भावलि के भेद से दो प्रकार का है अथवा प्रतीत, अनागत और वर्तमान के भेद से तीन प्रकार का है ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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