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________________ ४०० 1 नियममार - - - - - . -- ( पृथ्वी ) जयत्ययमुबारधीः स्ववशयोगिवृन्दारकः प्रनष्टभवकारणः प्रहतपूर्वकर्मावलिः । कदितः स्फुटितशुद्धबोधात्मिकां सदाशिवमयों मुवा प्रति सर्वथा निर्वृतिम् ।।२४७॥ ( अनुष्टुभ् ) प्रध्वस्तपंचबाणस्य पंचाचारांचिताकृतेः । अवंचकगुरोर्वाक्यं कारणं मुक्तिसंपदः ।।२४८।। -.- ---- - .. . . . ... -. ---.. --. आइम्बर के विविध विकल्परूप जो महाकोलाहल है उसके प्रतिपक्षरूप महान् आनंदानंद को प्रदान करने वाली ऐसी निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान स्वरूप परमआवश्यक क्रिया होती है। [अब टीकाकार श्री मुनिराज स्ववश मुनियों की प्रशंसा करते हुए आठ प्रलोक कहते हैं-] (२४७) श्लोकार्थ-जिन्होंने संसार के कारण को नष्ट कर दिया है तथा जो पूर्व में संचित ऐसे कर्मसमह को नष्ट करने वाले हैं ऐसे में उदार वृद्धि वालं स्ववश हये योगिपुगव जयशील हो रहे हैं। वे स्पष्टरूप उत्कट विवेक से प्रगटित शुद्धज्ञान स्वरूप, सदा शिव मय ऐसी मुक्ति को हर्षपूर्वक सर्वथा प्राप्त कर लेते हैं । भावार्थ--यहां पर स्ववश हये मनि की जो अवस्था बतलाई है उसके प्रसाद से वे शीघ्र ही घानिया कर्मों से रहित होकर निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं। (२४८) श्लोकार्थ-जिन्होंने पांच बाणों से सहित ऐसे कामदेव को ध्वस्त कर दिया है जो पांच आचारों से सहित पूज्य आकृति वाले हैं ऐसे अवंचक गुरु के वचन मुक्ति संपदा के कारणभूत हैं। भावार्थ-दर्शनाचार, ज्ञानाचार आदि पांच आचार रूप ही है आकार जिनका ऐसे वे पंचाचार परिणत साधुजन किसी की वंचना नहीं करते हैं इसलिये इनके पूर्ण विश्वस्त गुरुदेव के वचन निर्वाण के कारण माने गये हैं ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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