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________________ निश्चय-परमावश्यक अधिकार [ ४०१ ( अनुष्टुभ्) इत्थं बुद्ध्या जिनेन्द्रस्य मार्ग निर्वाणकारणम् । निर्वागसंपदं याति यस्तं धंदे पुनः पुनः ॥२४६।। (द्रुतविलंबित) स्ववशयोगिनिकायविशेषक प्रहतचारवधूकनकस्पृह । त्वमसि नशर भयकान स्मरकिरातशरक्षतचेतसाम् ।।२५७ ।। (द्रुतविलंबित ) अनशनादितपश्चरण: फलं तनुविशोषरणमेव न चापरम् । तव पदांबुरुहद्वचितया स्थवश जन्म सदा सफलं मम ।।२५।। .-.-:. .-.-... । (२४६ ) श्लोकार्थ—जिनेन्द्रदेव का मार्ग निर्वाण का कारण है. एसा जानकर -जो मुनि निर्वाण संपत्ति को प्राप्त कर लेते हैं उनको मैं पुनः पुनः वंदना करता हूं। E (२५०) श्लोकार्थ-जिसने सुन्दर कामिनी और कनक से स्पृहा को नष्ट E कर दिया है ऐसे स्ववश योगी समूह में तिलक स्वरूप हे योगिराज ! कामदेवरूपी भील के बाणों से क्षत चित्त वाले ऐसे हम लोगों को इस भव वन में आप ही शरण हैं। (२५१) श्लोकार्थ-~-अनशन आदि तपश्चरणों के द्वारा होने वाला फल शरीर शोषण मात्र ही है अन्य कुछ नहीं है । हे स्ववश मुनिराज ! आपके चरण कमल युगल की चिंता से ही सदा मेरा जन्म सफल है । भावार्थ-अनशन अवमौदर्य आदि तपश्चरणों के फल की यहां अवहेलना की से, ऐसा प्रतीत होता है किंतु ऐसी बात नहीं है क्योंकि अन्यत्र ग्रंथों में इन तपश्वरणों में अत्यधिक कर्मों को निर्जरा मानी है लपश्चरण के बिना भी पूर्णतया कर्मों की निर्जरा श्रीना असम्भव है। श्री समंतभद्र स्वामी ने कहा है कि
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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