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________________ दुपयो, अधिकार [ ४७५ ( अनुष्टुभ् ) पंचसंसारनिमुक्तान् पंचसंसारमुक्तये । पंचसिद्धानहं वंदे पंचमोक्षफलप्रदान् ।।२६५॥ . जाइजरमरणरहियं, परमं कम्मढ़वज्जियं सुद्धं । रगाणाइचउसहानं, अक्खयमविरणासमच्छेयं ॥१७७॥ जातिजरामरणरहितं परम कर्माष्टजितं शुद्धम् ज्ञानादिचतुःस्वभावं अक्षयमविनाशमन्छेयम् ।।१७७।। निर्वाण धाम आठों. कर्मों में शुन्य है। गतजन्मजरामृत्यु प्रो परम शुद्ध के ।। बर ज्ञान दर्ग वीरज मुख चार स्वभावी। अक्षय विनाश विरहित अद्य स्वभावी ।।2।। -- - - - - - (२६५) श्लोकार्थ-पांच प्रकार के संसार से राहत, पांच प्रकार के मोक्ष को प्रदान करनेवाले ऐसे पांच प्रकार के सिद्धों को मैं पांच प्रकार के संसार से मुक्त होने के लिए वंदन करता है। भावार्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव ये पांच प्रकार का संसार है, इन पांच प्रकार के संसार से मुक्त-रहित जो फल है उनको सिद्ध करनेवाले पांच प्रकार के सिद्ध हो जाते हैं, पांच प्रकार के संसार से छूटने के लिए उनको यहां वंदन किया गया है। गाथा १७७ अन्वयार्थ-ये सिद्ध भगवान् [जातिजरामरणरहितं] जन्म, जरा और मरण से रहित [ परमम् ] परम, [ कर्माष्टवजितं ] आय कर्मों से रहित, [ शुद्ध ] शुद्ध [ज्ञानादि चतुः स्वभावं] ज्ञानादि चार स्वभाववाले [ अक्षयं ] अक्षय [ अविनाशं ] अविनाशी और [अच्छेद्यं] अच्छेद्य हैं ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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