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________________ १५० ] नियमसार तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ (अनुष्टुभ् ) "दर्शनं निश्चयः पुसि बोधस्तद्बोध इष्यते । स्थितिरत्रव चारित्रमिति योगः शिवाश्रयः ॥" तथा च तथा निष्ठापन सर्वत्र हो सकता है ।" इसलिए यहां पर जिनसूत्र को तो बाहर सहकारी कारण कहा है और उनके जानने वाले श्रुतकेवली आदि महामुनियों को अंतरंग हेतु कह दिया है। अनंतर टीकाकार ने यह स्पष्ट किया है कि व्यवहार रत्नत्रय से निश्चयरत्नत्रय को प्राप्तकर यह भव्यजीव जो कभी नहीं प्राप्त हुई ऐसी अभूतपूर्व सिद्ध अबस्था को प्राप्त कर लेता है। आगे स्वयं ग्रंथकार व्यवहार चारित्र का वर्णन करेंगे, पुनः निश्चयपतिक्रमण आदि रूप में निश्चयचारित्र का वर्णन करेंगे । [ निश्चयचारित्र को महना को बतलाने हुए--- ] एकस्वसप्तति में श्रीपद्मनंदि आचार्य ने भी उसी प्रकार से कहा है । "श्लोकार्थ--आत्मा का निश्चय दर्शन है, आत्मा का बोध वह ज्ञान है, और उसी आत्मा में ही स्थिति होना सो चारित्र है। इसप्रकार का योग शिवपद का। कारण है । अर्थात् अपनी आत्मा का निश्चय होना, ज्ञान होना और उसी में एका स्थिर हो जाना यह निश्चयरत्नत्रय ही साक्षात् मोक्ष का कारण है। और उगीप्रकार-टोकाकार श्री मुनिराज निश्चयरत्नत्रय की महिमा को । बतलाते हुए इस शुद्ध अधिकार को पूर्ण करत है--] १. दसणमोहक्खवणापटुवगो कम्मभूमिजादो हु । मणुसो केवलिमूले गिट्टवी हीदि सम्वत्थ ।।६४६f ... [ गो. कर्म.] . . .
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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