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________________ शुद्धभाव अधिकार [ १५१ (मालिनी) जयति सहजबोधस्तादृशी दृष्टि रेषा चरणमपि विशुद्ध तद्विधं चैव नित्यम् । अघकुलमलपंकानीकनिमुक्तमूतिः सहजपरमतत्त्वे संस्थिता चेतना च ॥७५।। इति सूविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरबजितगात्रमात्रपरिग्रह-श्रीपद्मप्रभमलशारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ शुद्धभावाधिकारः तृतीयः श्रुतस्कन्धः ।। - - - - - - -.- -. . -- (७५) श्लोकार्थ—सहज ज्ञान, वैमा ही पहल दर्णन और वैमा ही महज 1. विशुद्धचाबि ये तीनों नित्य ही जयशील होन हैं, और पापम्प मलपंक की पंक्ति स निर्मुक्त मुनि म्बाप, सहजपरमतत्व में संस्थित चेतना भी मदा जयगोल होती है। विशेषार्थ-यहां जीव के शुद्धभावों को बनानाने हा आचार्यत्रर्य श्रीकुदकद। देव ने गाथा ३८ में लेकर ५५ पर्यत में यह अधिकार पूर्ण किया है। सबसे पहले इस अधिकार में ग्रंथकार शुद्धनिश्चय नय से जीव के औपाधिक भाव नहीं हैं इस बात को ४२ गाथा तक कहा है । पुनः जीव को निर्दड स्वभाव आदि कहने हा ४६ गाथा तक जीब के स्वभाव को विशेष स्पष्ट किया है । अनंतर बह वताया है कि ये मंमागे जीव भी सिद्धों के समान पूर्णतया शुद्ध हैं, आगे नयविवक्षा को मपष्ट करते हुए णुनय मे ही मंसारी जीवों को सिद्धसदृश कहना चाहिए ऐसा कहा है 1 पुनः व्यवहार सम्यवन्त्र के लक्षण को उमकी उत्पनि के बहिरंग अंतरंग कारणों को कहते हुए निश्चय व्यवहार रत्नत्रय को कहा है। इस प्रकार इस अधिकार में मुख्यतया जीव को शुद्ध नय से पूर्ण शुद्ध कहा है। इसप्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिए मयं ममान, पंचेन्द्रिय के विस्तार 1 से मात्रमात्र परिग्रहवारी श्रीपद्मप्रभमलधारीदेव के द्वारा विरचित नियमसार को तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में शुद्धभाव अधिकार नामक तृतीय श्रुतस्कंध पूर्ण हुआ । * शुद्धभाव अधिकार समाज के
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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