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________________ जीव अधिकार [ २५ ( आर्या) "अन्यूनमनतिरिक्तं पायातयं विना च विपरीतात् । निःसन्देहं वेद यदाहस्तज्ज्ञानमामिनः ॥" (हरिणी) ललितललितं शुद्ध निर्वाणकारणकारणं निखिलभविनामेतस्कर्णामृतं जिनसवचः । भवपरिभवारण्यज्वालित्विषां प्रशमे जलं प्रतिदिनमहं वन्दे वन्द्यं सवा जिनयोगिभिः ॥१५॥ गोवा नोकाया, अम्माधम्मा य काल प्रायासं । तच्चत्त्था इदि भरिणदा, पारसागुरणपज्जएहि संजुत्ता ॥६॥ जीवाः पुद्गलकाया धर्माधों घ काल आकाशम् ।। तत्त्वार्था इति मणिताः नानागुणपर्यायः संयुक्ताः ॥६॥ - -.. - - श्लोकार्थ-जो न्यनता रहित, अधिकता रहित, और विपरीतता रहित जैसे का तसा वस्तु के स्वरूप को संदेह रहित जानता है उसे आगम के ज्ञातानों ने सम्यग्ज्ञान कहा है। अर्थात् संशय विपर्यय और अनध्यवसाय, इन दोषों से रहित ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं । यहां न्यूनता और अधिकता से रहित का तात्पर्य अध्याप्तिअतिव्याप्ति दोषों से रहित होना भी है। [ अब टीकाकार मुनिराज जिनवचन की प्रशंसा करते हुये उसको वंदना करते हैं ( १५ ) लोका-जो जिनवचन ललित में ललित-मनोहर में भी मनोहर हैं, शुद्ध-पूर्वा पर बाधा से रहित हैं, निर्वाण का कारण जो भेदाभेद रत्नत्रय उसके लिये कारण हैं, समस्त भव्य जीवों के कानों के लिये अमृत स्वरूप हैं. भव रूपी वन में प्रज्वलित हुई दावानल की ज्वाला को शांत करने के लिये जल के समान हैं और जिनयोगियों के द्वारा सदा ही बन्दनीय हैं ऐसे जिन वचनों की मैं प्रतिदिन बन्दना करता हूं। - - -
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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