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________________ ४०८ | नियमसार जो साधु नित्य आवश्यक युक्त होता | वोही अवश्य मुनि अन्तर आत्मा है ।। जो शून्य है श्रमण आवश्यक क्रिया से । उसको कहें यतिपती बहिरातमा ही ||१४६ ।। अनावश्यक कर्माभावे तपोधनो बहिरात्मा भवतीत्युक्तः । अभेदानुपचाररत्रयात्मकस्वात्मानुष्ठाननियतपरमावश्यक कर्मणानवरत संयुक्तः स्ववशाभिधानपरमश्रमणः सर्वोत्कृष्टोऽन्तरात्मा, षोडशकषायाणामभावादयं क्षीणमोहपदत्रों परिप्राप्य स्थितो महात्मा । श्रसंयतसम्यग्दृष्टिर्जघन्यांतरात्मा । अनयोर्मध्यमाः सर्वे मध्यमान्तरात्मानः । निश्चयव्यवहारनयद्वयप्रणीतपरमावश्यकक्रियाविहीनो बहिरात्मेति । उक्त च मार्गप्रकाशे - ( अनुष्टुभ् ) "बहिरात्मान्तरात्मेति स्यादन्यसमयोद्विधा । बहिरात्मानयोर्देहकर खाद्य तितात्मधीः ॥ " से रहित [ श्रमरणः ] श्रमण है [स] वह [ हिरा भवति ] बहिरात्मा होता है । टीका - आवश्यक क्रिया के अभाव में तपोधन बहिरात्मा होता है, ऐसा यहां पर कहा है । अभेद अनुपचार रत्नत्रय स्वरूप अपनी आत्मा के अनुष्ठान में निश्चितरूप परमावश्यक क्रिया से हमेशा संयुक्त 'स्ववश' इस नाम वाले परमश्रमण सर्वोत्कृष्ट अंतरात्मा है, क्योंकि सोलह कषायों के अभाव से ये क्षीण मोह पदवी को प्राप्त बारहवें गुणस्थान में स्थित हुए महात्मा हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि जीव जघन्य अन्तरात्मा हैं और इन दोनों के मध्य में रहने वाले सभी मध्यम अन्तरात्मा हैं । तथा निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों से प्रणीत परम आवश्यक क्रियाओं से रहित जीव बहिरात्मा हैं । इसीप्रकार से मार्गप्रकाश में भी कहा है " श्लोकार्थ - अन्य समय - परसमय के बहिरात्मा और अन्तरात्मा ऐसे दो प्रकार होते हैं । इन दोनों में से जो देह् इंद्रिय, आदि में उत्पन्न हुई आत्म बुद्धि वाला है वह बहिरात्मा है ।"
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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