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________________ नियममार ४५.८ ] स्वभाववादः । अस्य विपरीतो वितर्कः स खलु विभाववाद: प्राथमिक शिष्याभिप्रायः । कथमिति चेत्, पूर्वोक्तस्वरूपमात्मानं खलु न जानात्यात्मा स्वरूपावस्थितः संतिष्ठति । यथोष्णस्वरूपस्याग्नेः स्वरूपमग्निः किं जानाति तथैव ज्ञानज्ञेयविकल्पाभावात् सोऽयमात्मात्मनि तिष्ठति । हंहो प्राथमिकशिष्य अग्निवदयमात्मा किमचेतनः । किं बहुना । तमात्मानं ज्ञानं न जानाति चेद् देवदत्तरहितपरशुवत् इदं हि नार्थक्रियाकारि, अत एव आत्मनः सकाशाद् व्यतिरिक्त भवति । तन्न खलु सम्मतं स्वभाववावितामिति । प्रश्न- यह वितर्क ऐसा कैसे है ? क्योंकि वास्तव में आत्मा पूर्वोक्त आत्मा को नहीं जानता है ऋितु स्वरूप में अवस्थित रहता है। जिसप्रकार उष्ण भ्वरूप वाली अग्नि के स्वरूप को क्या अग्नि जानती है ? अर्थात् नहीं जानती है उसी प्रकार से ज्ञान और ज्ञेयरूप विकल्प के अभाव से सो पक्षमा अरुका में स्थित रहता है अर्थात् आत्मा को नहीं जानता है क्योंकि वह उसीमें स्थित है अथवा उसीप I उत्तर- हे प्राथमिक शिष्य ! क्या अग्नि के समान यह आत्मा अचेतन है ? बहुत कहने से क्या यदि ज्ञान उस आत्मा को नहीं जानता है तो देवदत्त से रहित उस कुल्हाड़ी के समान यह ज्ञान अर्थक्रियाकारी नहीं रहेगा, इस हेतु से वह आत्मा में भिन्न सिद्ध होगा । किंतु यह बात वास्तव में स्वभाव वादियों को सम्मत नहीं है । विशेषार्थ- गाथा १६९ में जो कहा है कि केवली भगवान लोकालोक को तो जानते हैं कि आत्मा को नहीं, यदि ऐसा कोई कहे तो क्या दूषण है ? वास्तव में सिद्धांत की अपेक्षा ज्ञान को पर प्रकाशी कहा है उसी दृष्टि से यहां प्रश्न है । टीकाकार ने इसे व्यवहारनय की अपेक्षा से सिद्ध कर दिया है और कहा कि ऐसा कहने वालों को कोई दूषण नहीं है । पुनः आचार्य ने १७० वीं गाथा में कहा है कि ज्ञान तो जीव का स्वभाव है यदि वह स्वयं अपनी आत्मा को न जाने तो वह आत्मा से भिन्न हो जावेगा । टीकाकार ने ज्ञान को परप्रकाशी कहने में विभाववाद कहकर उसका निराकरण कर दिया है क्योंकि निश्चयनय से आत्मा और ज्ञान तथा दर्शन स्वपरप्रकाशी हैं । इस बात को गाथा १६५ में कह चुके हैं तथा आगे १७१ में भी कहेंगे । कारण यह है कि यदि जान अपने को नहीं जानेगा तो जानते रूप अर्थ क्रिया से शुन्य
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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