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________________ शुद्धोपयोग अधिकार गाणं जीवसरूवं, तम्हा जाणेइ अप्पगं अप्पा । अप्पारणं ग वि जाररादि, अप्पादोहोदि विदिरित्तं ।।१७०॥ ज्ञानं जीवस्वरूपं तस्माज्जानात्यात्मकं आत्मा । प्रात्मानं नापि जानात्यात्मनो भवति व्यतिरिक्तम् ॥१७०।। यह जान तो आतमा का लक्षण है सासना । अतएव आतमा को आत्मा हो जानता ।। यदि ज्ञान आत्मा को नहि जानता सहो। तब तो ये ज्ञान आत्मा से भिन्न होगा ही। १७०।। अत्र ज्ञानस्वरूपो जोव इति वितर्केणोक्तः । इह हि ज्ञानं ताबज्जीवस्वरूपं भवति, ततो हेतोरखण्डाढतस्वभावनिरतं निरतिशयपरमभावनासनाथं मुक्ति सन्दरीनाथं, बहिर्यावृत्तकौतुहलं निजपरमात्मानं जानाति कश्चिदात्मा भव्यजीव इति अयं खल भावार्थ -- यदि कोई मुनिराज व्यवहारनय को प्रधानता में एसा कहते हैं कि जिनदेव नीक को तो जानते हैं, किंतु आत्मा को नहीं जानते हैं जो इस कथन में कोई दोष नहीं है क्योंकि स्यादाद में सभी कथन नयों की अपेक्षा से ही होता है । गाथा १७० अन्वयार्थ- [ज्ञानं जीवस्वरूपं] ज्ञान जीव का स्वरूप है [तस्मात् इसलिये । [आत्मा आत्मकं जानाति] आन्मा आत्मा को जानता है, [न अपि आत्मानं जानाति] । यदि ज्ञान आत्मा को नहीं जानता है तो [पात्मनः व्यतिरिक्तः भवति ] वह आत्मा मे भिन्न हो जायेगा। टोका-'जीव ज्ञानस्वरूप है ऐसा यहां बितर्क पूर्वक कहा है । प्रथमतः ज्ञान तो वास्तव में जीव का स्वरूप है, इसी हेतु से कोई आत्मा जो कि भव्य जीत्र है, वह अखण्ड, अद्वैत स्वभाव में लीन, निरतिशय अद्वितीय परम भावना से सनाथ मुक्ति सुन्दरी के नाथ, और बाह्य कौतूहल से रहित ऐसी निज परमात्मा को जानता है ऐसा जो कथन है सो यह वास्तव में स्वभाववाद है । इससे विपरीत जो वितर्क-ऊहापोह या विचार है वह वास्तव में विभाववाद है, जो कि प्राथमिक शिष्यों का अभाव है ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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