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________________ परम-भक्ति अधिकार मोक्खंगयपुरिसाणं, गुरणभेदं जारिणऊण तेसि पि । जो कुरणदि परमभक्त, ववहारायेण परिकहियं ॥ १३५ ॥ मोक्षगतपुरुषाणां गुणभेदं ज्ञात्वा तेषामपि । यः करोति परमभक्त व्यवहारनयेन परिकथितम् ।। १३५ ।। प्राप्त किया निर्वाण, जिन महान पुरुषों ने | उनके गुण के भेद समझ कर जिनने ॥ मन वच तन से नित्य, किया परमभकी को । कही गई व्यवहार, नय से ही भक्तो वो । १३५ ।। [ ३६८ व्यवहारनयप्रधानसिद्धभक्तिस्वरूपाख्यानमेतत् । ये पुराणपुरुषाः समस्तकर्मक्षयोपायहेतुभूतं कारणपरमात्मानमभेदानुपचाररत्नत्रयपरिणत्या सम्यगाराध्य सिद्धा जातास्तेषां विशेषार्थ- इस ग्रन्थ में मुनियोंक भेदाभेद रत्नत्रय का ही वर्णन है उसमें भी शुद्ध रत्नत्रय ही प्रधान है, अतः श्रावकों के सिवाय सर्वत्र आचार्यदेव ने संयत, संयमी, श्रमण मुनि और साधु इन शब्दों का ही प्रयोग किया है। किंतु यहां पर भक्तिका प्रकरण होने से श्रावकों को भी ले लिया है, क्योंकि श्रावक भी रत्नत्रय की आराधना उपासना करते हैं । तथा वे एकदेश रत्नत्नय से सहित ऐसे अण्वती भी होते हैं । गाथा १३५ अन्वयार्थ - [ यः ] जो [ मोक्षगत पुरुषाणां ] मोक्ष को प्राप्त हुये पुरुषों में [ गुणभेदं ज्ञात्वा ] गुणों के भेद को जानकर [ तेषां अपि ] उनकी भी [ परमभक्ति ] परम भक्ति [ करोति ] करता है, ( उसके ) [ व्यवहारनयेन परिकथितं ] व्यवहार नय से भक्ति कही गई है । टीका - यह, व्यवहारनय प्रधान सिद्ध भक्ति के स्वरूप का कथन है । जो पुराण पुरुष समस्त कर्मों के क्षय के लिए उपाय में कारणभूत ऐसे कारण परमात्मा की अभेद, अनुपचार रत्नत्रय की परिणति से सम्यक् प्रकार से आरा 2224
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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