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________________ ३६८ ] नियम रत्नत्रयस्वरूपाख्यानमेतत् । चतुर्गतिसंसारपरिभ्रमणकारणतोत्रमिथ्यात्वकर्मप्रकृतिप्रतिपक्षनिजपरमात्मतत्त्वसम्यकश्रद्धानावबोधाचरणात्मकेषु शुद्धरत्नत्रयपरिणामेषु भजनं भक्तिराराधनेत्यर्थः एकादशपदेषु श्रावकेषु जघन्याः षट्, मध्यमास्नयः, उत्तमौ द्वौ च, एते सर्वे शुद्धरत्नत्रयक्ति कुर्वन्ति । अथ भवभयभीरवः परमनैष्कर्म्यवृत्तयः परमतपोधनाश्च रत्नत्रयक्ति कुर्वन्ति । तेषां परमश्रावकारणां परमतपोधनानां च जिनोत्सः प्रज्ञप्ता निव॒तिभक्तिरपुनर्भवपुरंभ्रिकासेवा भवतीति । (मंदाकांता ) सम्यक्त्वेऽस्मिन् भवभयहरे शुद्धबोधे चरित्रे भक्ति कुर्यादनिशमतुला यो भवच्छेददक्षाम् । कामक्रोधाद्य खिलदुरघवातनिर्मुक्तचेता भक्तो भक्तो भवति सततं श्रावक: संयमी वा ॥२२०॥ टीका-यह रत्नत्रय के स्वरूप का कथन है। चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण के लिये कारणभूत जो मिथ्यात्वकर्म प्रकृति है, उससे विपरीत निज परमात्म तत्व का सम्बक श्रद्धान, ज्ञान और उसी में आचरण रूप ऐसे शुद्ध रत्नत्रय स्वरूप परिणामों का भजन भक्ति कहलाता है। उसीको आराधना कहते हैं। ___ ग्यारह पद-प्रतिमाधारी श्रावकों में छह प्रतिमा तक जघन्य हैं, आगे के तीन तक मध्यम और आगे के दो ये उत्तम हैं, इन पद वाले सभी श्रावक शुद्ध रत्नत्रय की भक्ति करते हैं, तथा भवभयभीरु, परम-नैरकर्म्य वृत्ति वाले ( निश्चय भक्ति वाले ) परमतपोधन (शुद्ध) रत्नत्रय की भक्ति करते हैं। उन परम श्रावकों को तथा परम तपोधन साधुओं को जिनवरों के द्वारा कही गई अपुनर्भवरूपी रमणी की सेवा रूप, निर्वाण भक्ति होती है। [अब टोकाकार मुनिराज भक्ति के माहात्म्य को बतलाते हुए कहते हैं-] (२२०) श्लोकार्थ-जो जीव भवभय को हरने वाले ऐसे इस सम्यक्त्व में शुद्ध ज्ञान में और चारित्र में हमेशा भव का छेद करने में दक्ष भक्ति को करता है, वह काम क्रोधादि अखिल पाप समूह से रहित चित्त बाला होता हुआ श्रावक हो या संयमी । हो, भक्त है, भक्त है ।।२२०।।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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