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________________ ३७. ] नियमसार केवलज्ञानाविशुद्धगुणभेदं ज्ञात्वा निर्वाणपरंपराहेतुभूतां परमभक्तिमासन्नभव्यः करोति, तस्य मुमुक्षोर्यवहारनयेन निर्वृत्तिभक्तिर्भवतीति । ( अनुष्टुभ् ) उद्धृतकर्मसंदोहान् सिद्धान् सिद्धिवधूधवान् । संप्राप्ताष्टगुणैश्वर्यान् नित्यं वन्दे शिवालयान् ।।२२१॥ (आर्या ) यवहारनयस्येत्थं निलिभक्तिजिनोत्तमैः प्रोक्ता । निश्चयनिर्वृतिभक्ती रत्नत्रयभक्तिरित्युक्ता ॥२२२।। ( आर्या ) निःशेषदोषदूरं केवलबोधादिशुद्धगुणनिलयम् । शुद्धोपयोगफलमिति सिद्धत्वं प्राहुराचार्याः ॥२२३॥ - - - धित करके सिद्ध हुये हैं, उनके केवलज्ञान आदि शुद्ध गुणों के भेद को जानकर निर्वाण के लिये परंपरा से हेतृभूत ऐसी परमभक्ति को जो आसन्नभव्य करते हैं, उन ममक्ष के व्यवहार नय से निर्वाण भक्ति होती है । [ अब टीकाकार मुनिराज पूनः व्यवहार से सिद्धों की भक्ति के महत्व को स्पष्ट करते हुये छह श्लोक कहते हैं-] श्लोकार्थ-जिन्होंने कर्म समूह को धो डाला है, जो सिद्धिव के पति हैं, तथा जिन्होंने आठ गुणों के ऐश्वर्य को प्राप्त कर लिया है । जो शिवालय-कल्याण के निवास-गृह हैं, ऐसे उन समस्त सिद्धों को मैं नित्य ही वंदन करता हूं ।।२२१॥ श्लोकार्थ-इसप्रकार से व्यवहार नय की यह निर्वाण भक्ति जिनवरों ने कही है, तथा रत्नत्रय की भक्ति ही निश्चय निर्वाण भक्ति है, ऐसा कहा है ।।२२२।। श्लोकार्थ-निःशेष ( संपूर्ण ) दोषों से दूर, केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों के स्थान ऐसे सिद्ध पद को आचार्यों ने शुद्धोपयोग का फल कहा है ।। २२३ ।।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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