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________________ [ ३७१ परम-भक्ति अधिकार ( शार्दूलविक्रीडित ) ये लोकाग्रनिवासिनो भवभवक्लेशार्णवान्तं गता ये निर्वाणवधूटिकास्तनभराश्लेषोत्थसौख्याकराः । ये शुद्धात्मविभावनोद्भवमहाकैवल्यसंपद्गुणा स्तान सिद्धानभिनौम्यहं प्रतिदिनं पापाटवीपावकान् ॥२२४।। (शार्दूलविक्रीडित) त्रैलोक्याग्रनिकेतनान् गुणगुरून ज्ञेयाधिपारंगतान् मुक्तिश्रीवनितामुखाम्बुजरवीन स्वाधीनसौख्यार्णवान् । सिद्धान् सिद्धगुणा हा भवहीन नातिन् नित्यान तान् शरणं व्रजामि सततं पापाटवीपाचकान् ।।२२५।। ( वसंततिलका) ये मर्त्यदेवनिकुरम्बपरोक्षभक्तियोग्या: सदा शिवमयाः प्रवराः प्रसिद्धाः । लोकार्थ-जो लोक के अग्रभाग में निवास करते हैं जो भव-भब के चला हपी ममुद्र के पार को प्राप्त हो चुके हैं। जो निर्वाण वध के पुष्ट स्तन के आलिंगन से उत्पन्न हुये से सौग्य की खान हैं, जो शुद्ध आत्मा की भावना से उत्पन्न हुये कैवल्य सम्पदा रूपी महा गुणों से सहित हैं और पापरूपी वनी को दग्ध करने के लिये अग्नि स्वरूप हैं, से उन सिद्धों को मैं प्रतिदिन नमस्कार करता हूं ।। २२४।। श्लोकार्थ-तीन लोक का अग्रभाग ही जिनका निबारागृह है, जो गुणों से गुरु-भारी हैं, थाष्ठ-गम्भीर, जो ज्ञेयरूपी समुद्र के पारंगत है, जो मुक्ति लक्ष्मीरूपी मुदरी के मुख कमल को विकसित करने के लिये सूर्य हैं, जो स्वाधीन सौख्य के समुद्र हैं, जिन्होंने आठ गुणों को सिद्ध कर लिया है, जो भव के हरने वाले हैं, जिन्होंने आठ कों के समूहों को नष्ट कर दिया है, जो शाश्वत रूप हैं, ऐसे उन पापरूपी वन को भस्म करने के लिये अग्नि स्वरूप सिद्धों को मैं सदा ही शरण ग्रहण करता हूं ।।२२५।। श्लोकायं-जो मनुष्यों के तथा देवों के समुदाय की परोक्ष भक्ति के योग्य हैं, सदा शिवमय-कल्याण स्वरूप हैं, श्रेष्ठ हैं, तथा प्रसिद्ध हैं वे सिद्ध भगवान सुसिद्धि
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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