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________________ अजीव अधिकार [ ७३ अतुभिः समबन्धः त्रिमिः पंचभिविषमबन्धः । अयमुत्कृष्ट परमाणुः । गलतां पुद्गलसम्पाणाम अन्तोऽवसानस्तस्मिन् स्थितो यः स कार्यपरमाणः। प्रणवश्चतुर्भेदाः कार्यकारणजघन्योत्कृष्ट भेदः । तस्य परमाणवन्यस्य स्वरूपस्थितत्वात् विभावाभावात् परमस्वभाव इति । तथा चोक्तं प्रवचनसारे "णिद्धा वा लुक्खा वा प्रणपरिणामा समा व विसमा वा । समदो दुराधिगा जदि बज्झन्ति हि आदिपरिहोणा ।। णिद्धत्तऐण दुगुणो घदुगुणणिद्धष बन्धमणुभदि । लुक्लेण वा तिगुणिवो अणु बझदि पंचगुणजुत्तो ॥" तथा हि उसी प्रकार प्रवचनसार में भी कहा गया है-- गायार्थ -"'परमाणु के परिणाम स्निग्ध हों या रूक्ष हों, सम अंश वाले हों या विषम अंश वाले जघन्य अर्थात् एक अंश बाले को छोड़कर यदि समान से दो - अधिक अंश बाले हों तो बंधते हैं । स्निग्ध रूप से दो अंश वाला परमाणु चार अंश वाले स्निग्ध परमाणु के साथ बंध का अनुभव करता है-अर्थात् बंध जाता है अथवा मक्ष रूप से तीन अंश वाला परमाणु पांच अंश वाले परमाणु के साथ संयुक्त होता हुअा बंधता है।" विशेषार्थ-स्निग्ध या रूक्ष परमाण यदि जघन्य अंश वाला है अर्थात् एक अंश वाला है तो उसमें बंध नहीं हो सकता है । इसलिये दो अंश से प्रारम्भ करना चाहिये । इधर दो अंश वाला स्निग्ध परमाणु हो और दूसरा चार अंश वाला चाहे स्निग्ध हो चाहे रूक्ष हो बंध जावेगा और अधिक गुण वाला है वह कम गुण वाले को अपने रूप परिणमा लेगा "बंधेऽधिको पारिणामिको च' ऐसे ही तीन गुणवाला परमाणु यदि स्निग्ध है और दूसरा पांच गुण वाला चाहे स्निग्ध हो चाहे रूक्ष, उनमें बंध हो जावेगा। १.प्रवचनसार गाथा १६५-१६६ ॥ २, तत्त्वार्थस्त्र अ० ५।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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