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________________ १६. ] नियमसार ( स्रग्धरा) नोत्थास्तान् सर्वदोषान् त्रिभुवनशिखरे ये स्विता वेहमुक्ताः तान् सर्वान् सिद्धिसिद्धपं निरुपमविशवज्ञामहाशक्तियुक्तान् । सिवान नष्टाष्टकर्मप्रकृतिसमुक्यान् नित्यशुद्धाननन्तान् अव्याबाधानमामि त्रिभुवनतिलकान सिद्धसोमन्तिनीशान् ॥१०॥ (अनुष्टुभ् ) स्वस्वरूपस्थितान् शुद्धान् प्राप्ताष्टगुणसंपदः । नष्टाष्टकर्मसंदोहान् सिद्धान् वंदे पुनः पुनः ॥१०३॥ पंचाचारसमग्गा, पंचिदियदंतिवप्पणिद्दलणा । धोरा गुणगंभीरा, पायरिया एरिसा होति ॥७३॥ पंचाचारसमग्राः पंचेन्द्रियदंतिदप्पंनिर्दलनाः । धीरा गुणगंभीरा आचार्या ईदृशा भयन्ति ॥७३॥ चैतन्य चिन्तामणिरूप नित्यशुद्ध अपने स्वरूप में ही निवास करते हैं । (१०२) श्लोकार्थ-जो उन संपूर्ण दोषों को समाप्त करके लोक के शिखर पर स्थित हैं और शरीर से मुक्त हैं, उन निरुपम, विशद ज्ञान, दर्शन, शक्ति से युक्त, आठों कर्मप्रकृतियों के ममुदाय को नष्ट करने वाले, नित्यशुद्ध, अन्तरहित अथवा गणनारहित अनन्त, बाधाजन्य इंद्रियसख से रहित-अव्याचाधसुखस्वरूप, त्रिभुवन के तिलक और मुक्तिकांता के पति, ऐसे संपूर्ण सिद्धों को मैं सिद्धपद की सिद्धि के लिए नमस्कार करता हूं। (१०३) श्लोकार्थ-अपने स्वरूप में स्थित, शुद्ध अष्टगुणों की संपत्ति को प्राप्त, अष्टकर्मसमूह को नष्ट करने वाले ऐसे सिद्धों को मैं पुनः पुनः वंदन करता हूं। गाथा ७३ अन्वयार्थ— [ पंचाचारसमग्राः ] पंचाचारों से परिपूर्ण [ पंचेन्द्रियरंतिदर्पनिर्दलनाः ] पांच इन्द्रियरूपी हाथी के मद को दलन करने वाले, [ धीराः ] धीर
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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