SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८ ] नियममार रिणयभावं गवि मुच्चइ', परभावं व गेण्हए केई । जाणदि पस्सवि सव्वं, सो हं इदि चितए णाणी ॥६॥ निजभावं नापि भुचति परभावं नैव गृह्णाति कमपि । जानाति पश्यति सर्व सोहमिति चितयेड् ज्ञानी ॥१७॥ ज्ञानादि निज भाव, जो मुनि कभी न तजते। किम ही भो परभाव, को जो ग्रहण न करते 11 निजपर झंय म्वरूप, सबको देख जाने । सा हो मैं हूं नित्य, ज्ञानी इसविध माने ||६|| प्रत्र परमभावनाभिमुखस्य शानिन, शिक्षण गुण । प्रस्तु कारणपरमात्मा सकलदुरितवीरवैरिसेनाविजयवंजयन्तीलुटाकं त्रिकालनिराबरणनिरंजननिजपरमभावं क्वचिदपि नापि मुंचति, पंचविघसंसारप्रवृद्धिकारणं विभावपुद्गलद्रव्यसंयोगसंजातं रागादिपरभाव नव गृह्णाति, निश्चयेन निजनिरावरणपरमबोधेन निरंजनसहजज्ञानसहज• - -. - - - -- - - - - गाथा १७ अन्वयार्थ--[निजभावं] जो निजभाव को [न अपि मुचति ] नहीं छोड़ता है और [कम् अपि परभावं] किसी भी परभाव को [ न एव गृह्णाति ] ग्रहण नहीं करता है, (मात्र) [सर्व] सब को [जानाति पश्यति ] जानता देखता है, [सः अहं] बह मैं हूं [इति] इसप्रकार से [ज्ञानी चितयेत् ] ज्ञानी चितवन करे । टीका-यहां पर परभावना के अभिमुम्ब हुए ऐसे ज्ञानी को शिक्षण दिया है । जो कारणपरमात्मा, सम्पूर्ण पापरूपी बीर बैरी की सेना की विजयपताका के लूटने वाले तीनों कालों में निरावरण निरञ्जन निज परमभाव को कहीं पर भीकिसी अवस्था में भी नहीं छोड़ता है, और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप ऐसे पांच प्रकार के संसार की प्रकृष्ट वृद्धि के लिए कारणभूत, विभाव पुद्गल द्रव्य के मंयोग से उत्पन्न हुए ऐसे रागादि परभावों को ग्रहण नहीं करता है, और निश्चयनय से अपने निरावरण परमज्ञान के द्वारा, निरंजन रूप, सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजशील १. मुचइ (क) पाठान्तर
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy