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________________ निश्चय प्रत्याख्यान अधिकार तथा चोक्तमेकत्वसध्यतौ तथा हि ( अनुष्टुभ् ) "केवलज्ञानसौख्यस्वभावं तत्परं महः । तत्र ज्ञातेन किं ज्ञातं दृष्टे दृष्टं श्रुते श्रुतम् ( मालिनी ) जयति स परमात्मा केवलज्ञानमूर्तिः सकल विमलष्टष्टि: शाश्वतानंदरूपः । सहजपरमचिच्छक्त्यात्मकः शाश्वतोयं निखिलमुनिजनानां चित्तकेजहंसः ॥ १२८ ॥ [ २५७ इसी प्रकार एकत्व सप्तति में भी कहा है- "श्लोकार्थ- 'वह परमतेज केवलज्ञान, केवलदर्शन और केवलमोस्य स्वभावी है । उसके जान लेने पर क्या नहीं जाना गया ? उसके देख लेने पर क्या नहीं देखा गया ? और उसके सुन लेने पर क्या नहीं सुना गया है ?" उसीप्रकार से – [ टीकाकार श्री मुनिराज उसी परमतत्त्व की भावना करते हुए श्लोक कहते हैं - ] - ( १२८ ) श्लोकार्थ सकल मुनिजनों के मन सरोज का हंस स्वरूप ऐसा जो यह शाश्वत, केवलज्ञान की मूर्तिरूप, सकल त्रिमल दर्शनरूप, शाश्वत आनन्द- सौख्यरूप और सहज परमचैतन्य वीर्यरूप परमात्मा है वह जयशील होता है । भावार्थ – स्वाभाविक अनन्तचतुष्टय से युक्त परमात्मा निश्चयनय से अथवा शक्तिरूप से मुनियों के हृदयकमल में विराजमान हैं वो ही कारण परमात्मा है क्योंकि शुद्धोपयोगी साधु ही ऐसी शुद्ध आत्मा का ध्यान करते हुए उसमें तन्मय हो जाते हैं, ऐसे कारण परमात्मा को यहां पर टीकाकार ने जयवन्त कहा है । १. पद्मनंदिपंचवि० के एकस्वसप्तति अ. में श्लो. २० ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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