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________________ निश्चय प्रत्याख्या परिकार [ve दृष्टिसहज शीलादिस्वभावधर्माणामाधाराधेयविकल्पनिर्मुक्तमपि सदामुक्त' सहजमुक्तिभामिनीसंभोग संभयपरतानिलयं कारणपरमात्मानं जानाति, तथाविषसहजावलोकेन पश्यति च स च कारणसमयसारोहमिति भावना सदा कर्तव्या सम्यग्ज्ञानिभिरिति । तथा चोक्त श्री पूज्यपादस्वामिभिः ( अनुष्टुम् ) "ग्राह्यं न गृह्णाति गृहीतं नापि मुचति । जानाति सर्वथा सर्व तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ।।” तथा हि ( वसंततिलका ) आत्मानमात्मनि निजात्मगुणाढयमात्मा जानाति पश्यति च पंचम भावमेकम् । तत्याज नैव सहजं परभावमन्यं गृह्णाति नैव खलु पौद्गलिकं विकारम् ॥ १२६॥ आदि स्वभाव धर्मो के आधार-आय सम्बन्धी विकल्पों से निर्मुक होते हुए भी सदा युक्त, सहज मुक्तिरूपी सुन्दरी के संयोग से उत्पन्न हुए सौख्य के स्थानभूत ऐसे ऐसे कारणपरमात्मा को जानता है और उसीप्रकार के सहजदर्शन के द्वारा देखता है, वह कारणसमयसार मैं हूं, सम्यग्ज्ञानियों को सदा ऐसी भावना करनी चाहिए । प्रकार से श्री पूज्यपादस्वामी ने भी कहा है " श्लोकार्थ - जो अग्राह्य नहीं ग्रहण करने योग्य को तो ग्रहण नहीं करता है और ग्रहण किये हुए अपने स्वाभाविक स्वभाव को नहीं छोड़ता है तथा सबको सभी प्रकार से जानता है वह स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा जानने योग्य मैं हूँ ।" उसीप्रकार से - [ टीकाकार भी विभावभाव को छोड़कर स्वभाव में स्थिर होने के लिए प्रेरणा देते हुए चार श्लोक कहते हैं ] ( १२६) श्लोकार्थ- - आत्मा अपने आत्मगुणों से समृद्ध पंचमभावरूप- परम पारिणामिक भाव स्वरूप ऐसी एक आत्मा को अपनी आत्मा में जानता है और देखता है, उस सहज, पंचमभाव स्वरूप आत्मा को आत्मा ने छोड़ा ही नहीं है, तथा निश्चित रूप से जो पौद्गलिक विकाररूप अन्य परभाव हैं उनको ग्रहण ही नहीं करता है,
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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