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________________ [३८१ परम भक्ति अधिकार ( आर्या ) वृषभाविवीरपश्चिमजिनपतयोप्येवमुक्तमार्गेण । कृत्वा तु योगक्ति निर्वाणवधूटिकासुखं यान्ति ।।२३२॥ ( आर्या । अपुनर्भवसुखसिद्धचं कुर्वेऽहं शुद्धयोगवरभक्तिम् । संसारघोरभीत्या सर्वे कुर्वन्तु जन्तवो नित्यम् ॥२३३॥ ( शार्दूलविक्रीनि) रागद्वेषपरंपरापरिणतं चेतो विहायाधुना शुद्धध्यानसमाहितेन मनसानंदात्मतत्त्वस्थितः । धर्म निर्मलशर्मकारिणमहं लब्बा गुरो। सन्निधौ ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लीये परब्रह्मरिण ।।२३४।। (२३२) श्लोकार्य-वृषभदेव से लेकर वीर पर्यन जिनपनि भी इम उपयुक्त __ मार्ग मे योग भक्ति को करके निर्वाण वध के सुख को प्राप्त कर लेते हैं। (२३३) श्लोकार्थ-अपुनर्भव के मुख की सिद्धि के लिये मैं शुद्ध योग की उत्तम भक्ति को करता हूं, सभी संसारी प्राणी संसार के घोर दुःखों की भीति से नित्य ही उस भक्ति को करो। (२३४) श्लोकार्थ-गुरु के निकट में निर्मल सुखकारी धर्म को प्राप्त करके, ज्ञान के द्वारा समस्त मोह की महिमा को जिसने नष्ट कर दिया है, ऐसा मैं अब राग और ष की परम्परा से परिणत हुये चित्त को छोड़कर शुद्ध ध्यान से एकाग्रता को प्राप्त ऐसे मन से आनंद स्वरूप आत्म तत्व में स्थित होता हुआ परब्रह्मरूप परमात्मा में लीन होता हूं। -- . - -.
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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