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________________ ३-२ ] 65 नियमसार (अनुदुम् ) निर्वृतेन्द्रियलौल्यानां तत्त्वलोलुपचेतसाम् । सुन्दरानन्दनिष्यन्दं जायते तत्त्वमुत्तमम् ।।२३५।। ( अनुष्टुभ् ) अत्यपूर्व निजात्मोत्थभावना जातशर्म I यतन्ते यतयो ये ते जीवन्मुक्ता हि नापरे ।। २३६॥ ( वसंततिलका ) अद्वन्द्व निष्ठमनघं परमात्मतत्त्वं संभावयामि तदहं पुनरेकमेकम् । कि त मे फलमिहात्यपदार्थ साथै मुक्तिस्पृहस्य भवशर्मणि निःस्पृहस्य || २३७॥ ( २३५ ) श्लोकार्थ -- जिन्होंने इन्द्रियों की लोलुपता को समाप्त कर दिया है, और जिनका चिन्त तत्त्वों में बोलती है ऐसे परमसाधु के सुन्दर आनन्द को झराने वाला उत तत्त्व प्रगट होता है । ( २३६) श्लोकार्थ -- जो यतिगण अतिशय और अपूर्व अपनी आत्मा से उत्पन्न हुई भावना से होने वाले सुख के लिये यत्न करते है. वे ही जीवन्मुक्त हैं, किंतु अन्य नहीं हैं । ( २३७) श्लोकार्थ - अद्व में लीन - रागद्वेषादि द्वंद्व से रहित स्वरूप में स्थित, निर्दोष, केवल एक रूप से उस एक परमात्म तत्त्व की मैं पुनः पुनः सम्यक् प्रकार से भावना करता हूं । मुक्ति की स्पृहा से सहित तथा भव सुख में निःस्पृह ऐसे मुझे इस लोक में उन अन्य पदार्थों के समुदाय से क्या फल है ? अर्थात् कुछ भी नहीं है । विशेषार्थ -- इस परम भक्ति अधिकार में गाथा १३४ से लेकर १४० तक पंच परमेष्ठी की और उनके रत्नत्रय गुणों की भक्ति का उपदेश है । व्यवहार भक्ति, स्तुति, नमस्कार, गुणगान आदि रूप है और निश्चयभक्ति वीतराग निर्विकल्प ध्यान
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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