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________________ गृद्धोपयोग अधिकार मोहाभावादपरमखिलं नैव गृह्णाति नित्यं । ज्ञानज्योतिर्हतमलकलिः सर्वलोकैकसाक्षी ।।२८८॥ परिणामपुववयणं, जीवस्स य बंधकारणं होई । परिणामरहियवयणं, तम्हा रणारिणस्स ण हि बंधो॥१७३॥ ईहायुवं वयरणं, जीवस्स य बंधकारणं होई। ईहारहियं वयणं, तम्हा रणारिणस्स रग हि बंधो ॥१७४।। परिणामपूर्ववचनं जीवस्य च बंधकारणं भवति । परिणामरहितवचनं तस्माज्ज्ञानिनो न हि बंधः ।।१७३।। ईहापूर्व वचनं जीवस्स च बंधकारणं भवति । ईशारहितं वचनं तस्माज्जानिनो न हि बंध: 1।१७४।। जीवों के जो वचन हों परिणाम पूर्वक । वे बंध के ही कारण क्योंकि मनःपूर्वक ।। परिणाम रहित वागी ज्ञानी प्रभु की है। प्रतएव बंध उनके केमे भी नहीं है ।।१७।। अभाव हो जाने से अखिल अन्य पदार्थों का नित्य ही (कदापि ग्रहण नहीं करते हैं किंतु जान ज्योति से मल के क्लेश को नष्ट कर देने वाले में समस्त लोक के एक साक्षी होते हैं। भावार्थ--केवनी भगवान सम्पूर्ण जगत को जानते देखते हैं फिर भी मोहनीय कर्म के सर्वथा अभाव हो जाने से ये किसी में रागद्वेष नहीं करते हैं, अनाव वे केवल ज्ञाता दृष्टा ही रहते हैं | गाथा १७३-१७४ अन्वयार्थ-[ परिणामपूर्ववचनं ] परिणाम पूर्वक वचन [ जीवस्य च ] जीव के लिये [बंधकारणं भवति ] बंध का कारण है, [ज्ञानिनः] ज्ञानी के परिणाम रहिसवचनं] परिणामरहित वचन हैं [तस्मात् बंध न हि] इसलिये उनके बंध नहीं होता है।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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