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________________ I ४६६ ] निगमसार श्रान्तं जानन्नपि पश्यन्नपि वा मनः प्रवृत्तेरभावादीहापूर्वकं वर्तनं न भवति तस्य केवलिनः परमभट्टारकस्य, तस्मात् स भगवान् केवलज्ञानीति प्रसिद्धः पुनस्तेन कारणेन स भगवान् अन्धक इति । तथा चोक्त' श्रीप्रवचनसारे तथा हि " ण वि परिणमवि ण गेहदि उप्पज्जदि णेव तेसु असु । जाणावि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो ॥ " ( मंदाक्रांता ) जानन् सर्वं भुवनभुवनाभ्यन्तरस्थं पदार्थ पश्यन् तद्वत् सहजमहिमा देवदेवो जिनेशः । अपेक्षा से केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों के आधारभूत होने से विश्व का निरन्तर जानते हुए भी और देखते हुए भी मन की प्रवृत्ति का अभाव होने से न केवली परम भट्टारक के ईहापूर्वक वर्तन नहीं होता है । इसलिये वे भगवान् केवलज्ञानी हैं यह बात प्रसिद्ध है, पुन: उसी कारण से वे भगवान् अबंधक हैं । उसी प्रकार से श्री प्रवचनासर में कहा है "गाथार्थ - आत्मा पदार्थों को जानता हुआ भी उनरूप परिणमन नहीं करता है, न उन्हें ग्रहण करता है और न उन पदार्थों में उत्पन्न हो होता है, इसलिये वह अबंधक कहा गया है ।" भावार्थ - केवलज्ञानी भगवान् सभी पदार्थों को जानते हुए भी न उनरूप परिणत ही होते हैं न उनको ग्रहण ही करते हैं और न उनरूप से उत्पन्न होते हैं और इसीलिये उन्हें पूर्ण वीतरागता रहने से कर्मों का बंध नहीं होता है । उसी प्रकार से [टीकाकार मुनिराज काव्य कलश द्वारा कहते हैं— ] ( २८८ ) श्लोकार्थ - सहज महिमाशाली देवदेव जिनेश्वर भुवनरूपी भवन के भीतर में स्थित सम्पूर्ण पदार्थों को जानते हुए तथा वैसे ही देखते हुए भी मोह का
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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