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________________ शुद्धोपयोग अधिकार जाणतो पस्तो, ईहापुण्वं रग होइ केवलियो । केवलिणारी तम्हा, तेण दु सोऽबंधगो भरिदो ॥ १७२ ॥ जानन् पश्यन्नीहापूर्वं न भवति केवलिनः । केवलज्ञानी तस्मात् तेन तु सोऽबन्धको भरितः ।। १७२ ।। भगवान केवली का जानन व देखना बंधना ।। होना न इच्छापूर्वक अन् इसमे हि केवली जित लोक सुन कहें । इच्छा बिना उनके कर्गों का बंध है ।। १७२ ।। [ ४६५ सर्वज्ञवीतरागस्य बांद्राभावत्वमत्रोक्तम् । भगवानर्हत्परमेष्ठी साद्यनिधनामुर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्ध सद्द्भूतव्यवहारेण केवलज्ञाना विशुद्धगुणावामाधारभूतत्वात् विश्वम बातें घट जाती हैं। क्योंकि 'तर्क ग्रंथ में मुख्यरूप से परसमय - अन्य सम्प्रदाय का व्याख्यान है और गुनः सिद्धांत में मुख्य वृति से स्वसमय का व्याख्यान है । यहां पर इस नियमसार में भी आचार्यदेव ने सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए प्रश्न उठाये हैं, पुनः अध्यात्म ग्रंथ में नयविवक्षा से ज्ञान, दर्शन, तथा आत्मा इन तीनों को भी कथंचित् स्वपर प्रकाशी सिद्ध कर दिया हैं, ऐसा समझना । गाथा १७२ अन्वयार्थ – [ केबलिनः ] केवली भगवान् का [ जानन् पश्यन् ईहापूर्वं न भवति ] जानना और देखना ईहा पूर्वक नहीं होता है. [ तस्मात् ] इसलिये [ केवलज्ञानी ] जो केवलज्ञानी है [स] वह [ तेन तु ] उस हेतु से [ अबंधक: भगतिः ] अबंधक कहा गया है । टीका -- यहां पर सर्वज्ञ वीतराग के वांछा का अभाव कहा है । भगवान् अर्हत परमेष्ठी सादिसांत अमूर्तिक अतीन्द्रिय स्वभावभूत शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय की १. तर्फे मुख्यवृत्या परसमयव्याख्यानं........ .. सिद्धांते पुनः स्वसमय व्याख्यानं मुख्यवृत्या | [ वृहद्रव्यसंग्रह पृ. १९२ ]
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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