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________________ परम- अालोचना अधिकार [ २९३ उक्त चोपासकाध्ययने (आर्या ) "आलोच्य सर्वमेनः कृतकारितमनुमतं च नियाजम् । आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निःशेषम् ॥" तथा हि पालोच्यालोच्य नित्यं सुकृतमसुकृतं घोरसंसारमूलं शुद्धात्मानं निरुपधिगुणं चात्मनवावलम्बे । --- . - -. . - - जो यह मकल कर्ष है उसकी आलोचना करके कर्मों से शुन्य और चैतन्य स्वरूप ऐसी अपनी आत्मा में मैं नित्य ही अपनी आत्मा के द्वारा 'निवास करता हूं। भावार्थ-भुतकालीन दोषों के त्याग को प्रतिक्रमण, भविष्यकालीन दोषों के त्याग को प्रत्याख्यान और वर्तमानकालीन दोषों के त्याग को आलोचना कहते हैं तथा संपूर्ण दोषों की उत्पत्ति का मूलकारण द्रव्यकर्म है इसलिये यहां उन्हीं उदय में आते हए द्रव्यकों की आलोचना की गई है। 'उपागकाध्ययन में भी कहा है श्लोकार्थ- "कृत, कारित, अनुमोदना से हुये ऐसे सम्पूर्ण पापों की निष्कपटवनि से आलोचना करके मरणकालपर्यंत संपूर्ण महानतों को आरोपित कर-ग्रहण करे ।" भावार्थ-जब कोई भी श्रावक सल्लेखना हेतु गुरु के पास जाता है तब वह संपूर्ण दोषों की आलोचना करके शेष जीवन तक के लिये गुरुदेव से महाव्रत लेकर मुनि हो जाता है। उसीप्रकार से [ श्री टीकाकार मुनिराज आलोचना का फल बतलाते हुए लोक कहत हैं-] (१५२) श्लोकार्थ-घोर संसार के लिये मूल ऐसे मृत और दाक्रत की । नित्य ही बार-बार आलोचना करके उपाधि रहित गुणों से युक्त ऐसी अपनी शुद्ध आत्मा १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार स्वामी समंतभद्र विरचित श्लोक १२५ ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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