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________________ . HT: ---- २९४ ] नियमसार पश्चादुच्चः प्रकृतिमखिला द्रव्यकर्मस्वरूपां नोत्या नाशं सहजविलसद्बोधलक्ष्मी व्रजामि ।।१५२।। पालोयणमालुछण, वियडीकरणं च भावशुद्धी य । चरविमिह परिकहियं, पालोयणलक्खणं समए ॥१०॥ आलोचनमालु छनमविकृतिकरणं च भावशुद्धिश्च । चतुयिमिह परिकथितं आलोचनलक्षणं समये ॥१०॥ ----. का अपनी आत्मा के द्वारा ही मैं अवलम्बन लेता हूं। अनन्तर द्रब्यकर्म म्वरूप ममा प्रकृतियों को अत्यन्तरूप से नाग करके सहज विलासरूप ऐसी बोध-केवलज्ञान लक्ष्मी को प्राप्त करता हूं । भावार्थ-जो पुण्य-पाप इन दोनों की आलोचना हो रही है वह अवस्था शुद्धोपयोगी परमवीतरागी मुनियों को होती है कि जहां पर-दशवें गुणस्थान में मोहनी कर्म का जड़मल से नाश कर पुनः शीघ्र ही बारहवें गुणस्थान के अन्त में शेष घातिक कमों का नाश कर देते हैं और तत्क्षण ही केवलनान को प्राप्त कर लेते हैं। छठे गुम्। स्थान तक मुनियों के केबल पापकर्मों की आलोचना होती है पुग्य को नहीं । तथा यह जो पुण्य को भी घोर संसार का मल कहा है वह सामान्य कथन है किन्तु विशेष कर में सम्यक्त्व सहित पुण्य परंपरा से मोक्ष का कारण है और सम्यक्व रहित पुण्य कदाचित् सम्यक्त्व आदि में कारण है । कदाचित् वापस सुग्य भोग के अनन्तर पाप निवृत्ति कराकर संसार में भ्रमाता ही रहता है । अत: सर्वथा एकांत नहीं समझाई क्योंकि ''पुण्णफला अरिहंता' ऐसा श्री कुदकुद देव का ही कथन है । गाथा १०८ अन्वयार्थ— [ आलोचनं ] आलोचना [पालुञ्छनं] आलु छन [ अविपूर्ण करणं ] अविकृतिकरण [ च ] और [ भावशुद्धिः च ] भावशुद्धि ये [ चतुः । १. प्रवचनसार गाथा-४५, अधिकार-१ ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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