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________________ २१२ ] नियमसार तथा चोक्त श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः ( मालिनी) "अलमलमतिजल्पै विकल्परनल्परमिह परमाथश्चत्यतां नित्यमेकः । स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फूतिमात्रा न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति ।" तथा हि ( आर्या ) अतितीव्रमोहसंभवपूर्वाजितं [ कर्म ] तत्प्रतिक्रम्य । आत्मनि सद्बोधात्मनि नित्यं वर्तेऽहमात्मना तस्मिन् ॥१११।। संपूर्ण विकल्पों से रहित होने पर ही ये निश्चय क्रियाय होती हैं ऐसा संकेन करते हुए श्री अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा है-- श्लोकार्थ- 'बहुत कुछ कहने से तथा बहुत कुछ दुर्विकल्प-आर्न रोद्र ध्यान रूप अशुभ विकल्पों से बम होवे. बस होवे, यहां इतना ही कहना बस है कि इस एक परमार्थस्वरूप का ही नित्य अनुभव करो। अपने आत्मा के रस के विस्तार में पूर्ण लबालब भरा हुआ जो ज्ञान उसके स्फुरायमान होने मात्र जो समयसार है, निश्चितरूप से उससे बढ़कर अन्य कुछ भी नहीं है ।' उमीप्रकार से [ टीकाकार श्रीमुनिराज निश्चयप्रतिक्रमण में अपने आपको । सन्मुस्व करते हुए श्लोक कहते हैं-] (१११) श्लोकार्थ-अनितीन मोह के उत्पन्न होने से जो पूर्व में उपाजित । कर्म, उनका प्रतिक्रमण करके मैं सद्बोधस्वरूप एसी उस आत्मा में अपनी आत्मा के द्वारा नित्य ही रहता हूं। अर्थात् मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले जो मोह राग द्वेष आदि परिणाम हैं इन परिणामों के निमित्त से हो प्रतिक्षण कर्म आते रहते हैं । १. समयसारकलश, २४४ !
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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