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________________ [ २१३ परमार्थ-प्रतित्रामण अधिकार आराहणाई वट्टइ, मोत्तूण विराहरण विसेसेण । सो पडिकमरणं उच्चइ, पडिकमणमनो हवे जम्हा ॥४॥ आराधनायां वर्तते मुक्त्वा विराधनं विशेषेण । स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात् ॥८४।। जो साधु विशेष रूप से सब व्रत की विराधना तजने हैं । निज आराधन वा चउ आराधन में नित वर्तन करते हैं ।। वे ही प्रतिक्रमण कहाते हैं क्योंकि वे प्रतिक्रमणमय है। वे निश्चम प्रतिक्रमणकर्ता, मुनि अाभध्यान में तन्मय हैं ।।१४।। अत्रात्माराधनायां वर्तमानस्य जन्तोरेव प्रतिक्रमणस्वरूपमुक्तम् । यस्तु परम। तत्त्वज्ञानी जीवः निरंतराभिमुखतया शत्रुटचत्परिणामसंतत्या साक्षात् स्वभावस्थिता। वात्माराधनायां वर्तते अयं निरपराधः । विगतात्माराधन: सापराधः, अत एव - - , इसलिये इन रागद्वेषादि भावों से उपाजित किये गये कार्यों को पत्रिका द्वारा दुः करके मैं मेरे शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा में ही निवास करता हूं, यही निश्चयप्रतिक्रमण । होता है। गाथा ८४ अन्वयार्थ-[ विशेषेण ] विशेषरूप से [ विराधनं मक्त्वा ] बिराधना को .. छोड़कर [ आराधनायां वर्तते ] जो आराधना में वर्तन करता है, [ सः प्रतिक्रमणं ] ___ वह जीव प्रतिक्रमण कहलाता है, [ यस्मात् ] क्योंकि वह [ प्रतिक्रमणमयं भवेत् ] प्रतिक्रमणमय हो जाता है। टोका-यहां आत्मा की आराधना में वर्तन करते हुए जीत्र को ही प्रतिक्रमणस्वरूप कहा है। जो परमतत्त्वज्ञानी जीव निरंतर अपनी तरफ उपयुक्त होने से अविच्छिन्न परिणाम संतति के द्वारा साक्षात् स्वभाव में स्थित होने रूप आत्मा की आराधना में वर्तन करते हैं वे निरपराधी हैं । जो आत्मा की आराधना से रहित हैं वे सापराधी हैं, इसीलिये 'संपूर्णरूप से विराधना को छोड़कर" ऐसा गाथा में कहा है। 'विगत'-निकल
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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