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________________ जीव अधिकार ( पृथ्वी ) क्वचिन्लसति सद्गुणः क्वचिदशुखरूपगुणः पचित्सहजपर्ययैः क्वचिदशुद्धपर्यायकः । सनाथमपि जीवसत्वमनाथं समस्तैरिदं । नमामि परिभावयामि सकलार्थसिद्ध सदा ॥२६॥ में हो उत्पन्न परमब्रह्म रूप उस समयसार को तू शोघ्र भज, जिसे कि तू भज मामा - भावार्थ--यद्यपि प्रात्मा में मतिज्ञान ग्रादि विभावगुण और नर नारकादि विभाव पर्यायें विद्यमान हैं फिर भी आचार्य कहते हैं कि इन विभाव गुण पर्यायों के विद्यमान रहने पर भी उत्तम पुरुषों-अंतरात्मा भव्य जीवों के द्वारा हृदय कमल में वारण आत्मा-बीजरूप परमात्मा विराजमान है । आचार्य सम्बोधन करते हुये प्रेरणा देते हैं कि भव्य सिंह ! अपने से ही उत्पन्न परमब्रह्म स्वरूप और समयसार स्वरूप अपनी शुद्ध प्रात्मा को भजो-अपनी यात्मा का हो ध्यान करो। वास्तव में 'सब्वे मुद्धा हु सुद्धणया' इस कथन के अनुसार सभी जोब शु द्वनय से शुद्ध हो हैं ऐसा समझकर अपनी आत्मा को शुद्ध समझ उसी का ध्यान करो। संसारी जीवों की यात्मा है वही परमात्मा के लिये कारणस्वरूप कारण आत्मा कहलाती है और जव परमात्म अवस्था प्रगट हो जाती है तब वही आत्मा कार्य प्रात्मा कहलाती है। इसलिये देह रूपी देवालय में भगवान् आत्मा विराजमान है तुम उसी का ध्यान करो ऐसा यहां अभिप्राय है। (२६ ) श्लोकार्थ--यह जीव तत्त्व कहीं पर अपने सद्गुणों से शोभायमान हो रहा है और कहीं अशुद्ध गुणों से दिख रहा है। कहीं पर स्वभाव पर्यायों से शोभित हो रहा है और कहीं पर प्रशुद्ध पर्यायों से शोभ रहा है। इन सभी से सहित होने पर भी इन सबसे रहित है ऐसे इस जीव तत्त्व को मैं सदा सकल अर्थ की सिद्धि के लिये नमस्कार करता हूं और उसी तत्त्व की ही भावना करता हूं।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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