SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 494
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५० ] नियममार महिमाधारोऽपि स भगवान् केवलदर्शनतृतीयलोचनोऽपि परमनिरपेक्षतया निःशेषतोऽन्तर्मुखत्वात् केवलस्वरूप प्रत्यक्ष मात्र व्यापारनिरत निरंजन निजसहज दर्शनेन सच्चिदानंदमयमात्मानं निश्चयतः पश्यतीति शुद्धनिश्चय नयविवक्षया यः कोपि शुद्धान्तस्तत्त्ववेदी परमजिनयोगीश्वरो वक्ति तस्य च न खलु दूषणं भवतीति । ( मंदाक्रांत ) पश्यत्यात्मा सहज परमात्मानमेकं विशुद्धं स्वान्तः: सः शुद्धघावसथमहिमा धारमत्यन्तधीरम् । स्वात्मन्युच्च र विचलतया सर्वदान्तनिमग्नं तस्मिन्नेव समिति महाद महिमाओं के धारी होते हुए भी तथा चे भगवान केवलदर्शनरूप तृतीय लोचन वाले होते हुए भी परम निरपेक्षता के कारण निश्चवनय से परिपूर्ण तथा अंतर्मुख होने से केवल स्वरूप के प्रति प्रत्यक्ष मात्र के व्यापार में लीन हुए निर्जन निज सहज दर्शन के द्वारा सच्चिदानंदमय आत्मा को देखते हैं । इसप्रकार शुद्ध निश्चय की विवक्षा से जो कोई भी शुद्ध चैतन्यतत्त्व के ज्ञाता परम जिन योगीश्वर कहते हैं उस कथन में वास्तव में दूषण नहीं है । भावार्थ- नय की विवक्षा से इस कथन में कोई दोष नहीं हैं। अथवा क्या दूषण आता है मां आगे वो गाथाओं से दिखाते हैं । कहते हैं [ अत्र टीकाकार मुनिराज इस बात को स्पष्ट करते हुए कलश काव्य J ( २८२ ) श्लोकार्थ -- यह आत्मा अपने अन्तरङ्ग शुद्धि का आवास होने से महिमा के आधारभूत अत्यन्त धीर और स्वात्मा में अतिशयतया अविचलरूप से सर्वदा आभ्यंतर में निमग्न ऐसे एक विशुद्ध सहज परमात्मा को देखता है। क्योंकि स्वभाव से महान ऐसे उस आत्मा में व्यावहारिक प्रपंच है ही नहीं । भावार्थ - यहां ज्ञान, दर्शन या आत्मा में जो स्वस्वरूप के प्रत्यक्ष की अपेक्षा है वह निश्वयनय से है और जो परवस्तु के प्रत्यक्ष की अपेक्षा है वह व्यवहारनय से
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy