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________________ युद्धोपयोग अधिकार एकाकारस्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराणः स्वस्मिन्नित्यं नियतवस तिनिविकल्पे महिम्नि ।। २६१ ॥ अप्पसरूवं पेच्छदि, लोयालोयं रण केवली भगवं । जइ कोइ भरगइ एवं, तस्स य कि दूसरणं होई ॥१६६॥ आत्मस्वरूपं पश्यति लोकालोको न केवली भगवान् । यदि कोपि भरत्येवं तस्य च किं दूषणं भवति ॥ १६६ ॥ भगवान् केवली यदि खानम स्वरूप की । बस देखते हैं किन्तु नहि लोक अलोक को ॥ यदि आप ऐसा कहते तो सत्य से नहीं | इसमें अनेक garm क्या हैं तो वही ।। १६६ । । [ ४४९ शुद्धनिश्चयनयविवक्षया परदर्शनत्वनिरासोऽयम् । व्यवहारेण पुद्गलादित्रिकालविविधविषद्रव्यगुणकि समय परिच्छित्तिसमर्थसकलविमल केवलावबोधमयत्वादि परिपूर्ण भरित पवित्र है और पुराण- सनातन है। यह नित्य ही निर्विकल्प महिमारूप अपने आपमें निश्चितरूप से वास करता है । गाथा १६६ अन्वयार्थ -- [ केवली भगवान् ] केवली भगवान् [ आत्मस्वरूपं पश्यति ] आत्मा के स्वरूप को देखते हैं [ न लोकालोको ] किंतु लोकालोक को नहीं, [ एवं यदि कः अपि भणति ] ऐसा यदि कोई भी कहता है तो [ तस्य च किं दूषणं भवति ] उसके लिये क्या दूषण है ? टीका - शुद्ध निश्चयनय की विवक्षा से परके अन्य पदार्थों के देखने का यह निराकरण है । व्यवहारनय से तीनों काल सम्बन्धी पुद्गल आदि द्रव्यों को और उनकी गुण पर्यायों को एक समय में जानने में समर्थ सकल विमल केवलज्ञानमयत्व आदि विविध
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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