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________________ ४४८ ] नियममार निश्चयनयेन स्वरूपाख्यानमेतत् । निश्चयनयेन स्वप्रकाशकत्वलक्षणं शुद्धज्ञानमिहाभिहित तथा सकलावरणप्रमुक्तशुद्धदर्शनमपि स्थप्रकाशकपरमेव । प्रात्मा हि विमुक्तसकलेन्द्रियव्यापारत्वात स्वप्रकाशकत्वलक्षणलक्षित इति यावत् । दर्शनमपि विमुक्त: बहिविषयत्वात स्वप्रकाशकत्वप्रधानमेय । इत्थं स्वरूपप्रत्यक्षलक्षणलक्षिताक्षुण्णसहजशुद्ध- । ज्ञानवर्शनमयत्वात् निश्चयेन जगत्त्रयकालत्रयतिस्थावरजंगमात्मकसमस्तद्रव्यगुणपर्याय विषयेषु आकाशाप्रकाशकादि प्रकाशाप्रकाशकादि ] विकल्पविदूरस्सन् स्वस्वरूपे * संज्ञालक्षणप्रकाशतया निरवशेषेणान्तर्मुखत्वादनबरतम् अखंडाद तचिच्चमत्कारमूतिरात्मा तिष्ठतीति । (मंदाक्रांता) आत्मा ज्ञानं भवति नियतं स्वप्रकाशात्मकं या दृष्टिः साक्षात् प्रहतबहिरालंबना सापि चैषः । टीका-यह निश्चयनय की अपेक्षा स्वरूप का कथन है । यहां निश्चयनय से शुद्धज्ञान को स्वप्रकाशक लक्षण वाला कहा है, उसीप्रकार से सकल आवरण से रहित शुद्ध दर्शन भी ग्यप्रकाशकम्प ही है । निश्चिनरूप मे आत्मा सकल इंद्रियों के व्यापार से मुक्त होने में स्वप्रकाशक लक्षण सं लक्षित ही है और दर्शन भी बाह्य विषयों से रहित होने ग स्वप्रकाशकत्व प्रधान ही है । इसप्रकार स्वरूप को प्रत्यक्ष करने का लक्षण से लक्षित अक्षण्ण-अखंड सहज शुद्ध ज्ञान दर्शनमय होने से निश्चय में जगत्त्रय, कालत्रयवर्ती रथावर जंगमरूप समस्त द्रव्य गुण और पर्यायरूप विषयों में आकार प्रकाशक आदि विकल्पों से अति दुर रहला हुआ अपने स्वरूप में सम्यक् अनुभव लक्षण प्रकाश के द्वारा निरवणेषरूप से अंतर्मुख होने से सतत अखण्ड, अद्वैत चिच्चमत्कार मूर्ति स्वरूप आत्मा रहता है। [अब टोकाकार मुनिराज ज्ञानदर्शनमयो आत्मा की महिमा बतलाते हुए कहते हैं-] (२८१) श्लोकार्थ-आत्मा ज्ञानस्वरूप है और ज्ञान निश्चय से स्व. प्रकाशात्मक है । जो दर्शन है वह भी साक्षात् बाह्य आलंबन को नष्ट कर चुका है, यह आत्मा इस दर्शनरूप भी है । ऐसा यह आत्मा एकाकाररूप निजरस के विस्तार से * यहां कुछ अशुद्धि हो ऐसा लगता है ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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